बालपन में पापा के
काफ़ी नज़दीक होती हैं
बेटियाँ..,
सारे आकाश के चन्दोवे सा
लगता है
उन्हें पापा का हाथ
जिसके तले
सरदी,गरमी और बरसात में
महफ़ूज़ समझती हैं
वे अपने आपको..,
दिन भर कामों में उलझी
माँ का व्यक्तित्व उनको
पापा के समक्ष गौण सा लगता है
लेकिन ..,
जैसे ही बेटियाँ
बचपन की दहलीज़ से
बड़प्पन के आँगन में जुड़ती है
तब ..,
जीवन की परिभाषा
बदल सी जाती है
अनुभूत जीवनानुभव..,
उनको माँ के अस्तित्व का
बोध कराते हैं
और तब बेटियों को
पूरे घर को सरल सहज भाव से
एक सूत्र में जोड़ती
माँ के आगे
पापा उलझे-उलझे
नज़र आते हैं
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