अजब सी दुनिया की रीति
वयस घटती फिर भी बढ़ती
वक्त की गठरी सदा उलझी हुई क्यों है
रिक्त होते समय-घट का , नियम यही है
मौन में तो सदा जड़ता
बोलने में ही प्रगल्भता
खामोशी पर शोर रहता भारी सा क्यों है
सही सदा लीक, बस चिन्तन नगण्य है
लहर तट तक आए जाए
हवा मोद में इठलाए
रेत पर फिर क्षुद्र जलचर तड़पते क्यों हैं
निज हित ऊँचे , समय सब का नही है
नित्य करें धरती के फेरे
चन्द्र संग उडुगण बहुत से
चल-अचल में नियम , आदमी ऐसा क्यों है
प्रश्न तो हैं , मगर उत्तर नहीं हैं
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 07 मई 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदयतल से आभार आ . यशोदा जी ! सादर वन्दे!
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से सादर आभार सर !
जवाब देंहटाएंसुंदर पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से हार्दिक आभार नीतीश जी ।
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय पंक्तियां
जवाब देंहटाएंसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से सादर आभार सर !
हटाएंप्रश्न जब विस्मय बन जाते हैं तब उत्तर की तलाश खो जाती है !
जवाब देंहटाएंसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से हार्दिक आभार अनीता जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से सादर आभार सर !
हटाएंमौन में तो सदा जड़ता
जवाब देंहटाएंबोलने में ही प्रगल्भता
बुद्धि , विवेक हो तो मौन की भाषा समझ आये....
तभी प्रश्नों के उत्तर भी मिलेंगे न।
लाजवाब सृजन ।
सृजन को सार्थकता प्रदान करती सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से हार्दिक आभार सुधा जी !
जवाब देंहटाएंबहुत जटिल है आदमी ... कई बार मुश्किल है जानना क्यूँ है ...
जवाब देंहटाएंसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से सादर आभार नासवा जी !
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