सुनहरी रेत में
सुघड़ता से पग धरती
पदचिह्नों पर ..,
पदचिह्न एकाकार करती
वह चली जा रही है धीरे-धीरे
ढाई अक्षर का शाश्वत स्वरूप
यूँ भी बना करता है
अनन्त अन्तरिक्ष विस्तार में
तरू-पल्लव की सरसराहट में
पक्षियों की चहचहाहट में
बारिश की बूँदों के धरती से
विलय में…,
प्रेम का सृजन हुआ करता है
कबीर का प्रेम..
निर्गुण ब्रह्म में सब कुछ देखता है
सूर का प्रेम ..,
शिशु मुस्कुराहट में खेलता है
गृहस्थी के सार में साँसें लेता है
तुलसी का प्रेम
तो अरावली की उपत्यकाओं में
गूँजता है मीरां का प्रेम
प्रेम सागर मंथन का फल है
कहीं वह शिव कण्ठ मे गरल
तो कहीं..,.
देवों का अमृत घट है
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