“स्त्रियाँ”
अपनी उपस्थिति
दर्ज करवाने की चाह में कि -
“मैं भी हूँ ..”,
उनका मौन मुखर
होते होते रह जाता है
और..,
अवसर मिलने तक
अभिव्यक्ति गूंगेपन का
सफ़र तय कर लेती है
*
“प्रेम”
भग्नावशेषों और चट्टानों
की देह पर अक्सर
उगा दीखता है प्रेम
सोचती हूँ…,
अमरता की चाह में
अपने ही हाथों प्रेम को
लहूलुहान..,
कर देता है आदमी
*