मेरे चिन्तन की प्रथम किरण,
हिन्दी भाषा सर्वस्व मेरी।
“माँ” स्वरूपा प्रथम उच्चारण,
जननी व बाल सखी मेरी॥
आंग्ल हुए जब शीश किरीट,
व्यापारी के छद्म वेष में।
आपद में बनी संगिनी तुम,
कष्ट हारिणी संवाद सूत्र में॥
आर्यावर्त का रोम रोम,
आजन्म रहेगा तेरा ऋणी।
उपकार करें कैसे विस्मृत,
बिन तेरे लगे शून्य धरिणी॥
सतत प्रवाह महासागर सा,
आँचल विस्तार गगन जैसा।
आगन्तुक का स्वागत करती,
आतिथेय कहाँ होगा ऐसा ॥
धर्म संस्कृति आचार-विचार,
कोटिशः कण्ठ चिर संगिनी है।
भारत भू की भाषा महान,
हिन्दी मेरी अभिव्यक्ति है॥
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सुंदर सृजन...
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार विकास जी !
हटाएंक्या खूब लिखा है दी..एकदम शानदार, लाज़वाब अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसस्नेह प्रणाम दी।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार एवं पाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका हार्दिक आभार श्वेता ! सस्नेह….!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर 🌻
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार शिवम जी !
हटाएंसतत प्रवाह महासागर सा,
जवाब देंहटाएंआँचल विस्तार गगन जैसा।
आगन्तुक का स्वागत करती,
आतिथेय कहाँ होगा ऐसा ॥
बहुत सुंदर सृजन मीना जी हिन्दी हमारी आत्मा है।
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
आपको भी हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ कुसुम जी!आपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना... बधाई हो आपको
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार हरीश जी !
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आ. ओंकार सर !
हटाएंसतत प्रवाह महासागर सा,
जवाब देंहटाएंआँचल विस्तार गगन जैसा।
आगन्तुक का स्वागत करती,
आतिथेय कहाँ होगा ऐसा ॥
बहुत सटीक एवं सार्थक सृजन
वाह!!!
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सुधा जी !
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