वर्षों से
मन की अलगनी पर टंगे
चंद विचार..
भूली भटकी सोच के
धागों में
उलझे -पुलझे..
मुझसे अक्सर अपना
वितान मांगते हैं
जी ने चाहा..
आपाधापी में गुजरते
वक़्त से
कुछ लम्हें चुराऊँ
और उतार दूं इन्हें
धुंधले पड़े उपेक्षित से
कैनवास पर..
इनको भी दूं
तितलियों से उड़ने वाले
रंगीन पंख ..
मगर हमेशा मन चाहा
कहाँ होता है ?
बंधनों के आदी
कहाँ समझते हैं
पंखों वाली
चपलता-चतुरता..
पा कर स्वतंत्रता
पहली ही स्वच्छन्द उड़ान में
जा उलझते हैं..
गुलाब भरी टहनियों के
आँगन में ।
*
कुछ लम्हें चुराऊँ
जवाब देंहटाएंऔर उतार दूं इन्हें
धुंधले पड़े उपेक्षित से
कैनवास पर..
इनको भी दूं
तितलियों से उड़ने वाले
रंगीन पंख ..
सुंदर काव्य सृजन
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के हृदयतल से बहुत बहुत आभार मनोज जी ।
जवाब देंहटाएंपहली ही स्वच्छन्द उड़ान में
जवाब देंहटाएंजा उलझते हैं..
गुलाब भरी टहनियों के
आँगन में ।
.. बहुत सुंदर लिखा है।
हृदयतल से बहुत बहुत आभार जिज्ञासा जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपका हृदयतल से हार्दिक आभार 🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना बहुत ही आभार मनोज जी
जवाब देंहटाएंthanks for sharing
आपका एवं अनुज मनोज जी का बहुत बहुत आभार 🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना शुकवार 02 जून 2023 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
पाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद आ.दीदी ! सादर सस्नेह वन्दे !
हटाएंबंधनों के आदी
जवाब देंहटाएंकहाँ समझते हैं
पंखों वाली
चपलता-चतुरता..
पा कर स्वतंत्रता
पहली ही स्वच्छन्द उड़ान में
जा उलझते हैं..
गुलाब भरी टहनियों के
आँगन में ।
सही हा मीनाजी ! बंधनों के आदि अब सिर्फ कल्पनाओं में उड़ते हैं
बेहतरीन सृजन
वाह!!!
आपकी सारगर्भित स्नेहिल प्रतिक्रिया ने लेखनी को सार्थकता प्रदान की । हृदयतल से असीम आभार सुधा जी !
हटाएंबंधनों के आदी
जवाब देंहटाएंकहाँ समझते हैं
पंखों वाली
चपलता-चतुरता..////
बहुत खूब लिखा है आपने प्रिय मीना जी।खूँटे की गाय की भान्ति इस मन का ठौर इस बंधन से दूर कहाँ?? खुद से संवाद करते एकाकी मन की मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए बधाई आपको 🙏
आपकी सारगर्भित स्नेहिल प्रतिक्रिया ने लेखनी को सार्थकता प्रदान की प्रिय रेणु जी ! हृदयतल से आपका असीम आभार ।
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