बड़ा कठिन है
‘सब ठीक है’ का
नाटक करना
अनजान होना
जान कर..
व्यथा ढकने के लिए
मुखौटे पहने
बीते जा रहा है वक़्त
दम घुटने लगा है
अब..
जी चाहता है
पूरी ताक़त से
चिल्लायें
मगर इस से होना
क्या है ..
सब की अपनी-अपनी
ढपली
अपना-अपना राग है
सच तो यही है
कि..
अपनी खामोशी भी
उन्हें अंतरंगता ही
लगती है
उलझनों के भंवर
के फेर में ..
कितने ही दिनों से
हम अपरिचितों की तरह
एक ही घर में
अलग-अलग घर बसाये
बैठे हैं …!!
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (9-4-23} को "हमारा वैदिक गणित"(चर्चा अंक 4654) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
चर्चा मंच की प्रस्तुति में सृजन को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार सहित धन्यवाद कामिनी जी !
हटाएंसुंदर पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से बहुत बहुत आभार ।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंहृदयतल से बहुत बहुत आभार ।
हटाएंमगर इस से होना
जवाब देंहटाएंक्या है ..
सब की अपनी-अपनी
ढपली
अपना-अपना राग है
सही कहा किसी की व्यथा की किसे पड़ी है...।
खुशी का मुखौटा ही सही है लोगों के साथ होने के लिए... वरना अकेलापन भी झेलना होगा ।
सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से असीम आभार सुधा जी !
हटाएंकितने ही दिनों से
जवाब देंहटाएंहम अपरिचितों की तरह
एक ही घर में
अलग-अलग घर बसाये
बैठे हैं …!!
आज के समय की हकीकत बयां करती अच्छी रचना!
आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने सृजन को सार्थक किया । हृदयतल से असीम आभार जिज्ञासा जी !
हटाएंएक ही घर में
जवाब देंहटाएंअलग-अलग घर बसाये
बैठे हैं …!!
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति....गहरी बात कहती पंक्तियाँ
सराहना सम्पन्न सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद ।
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