वर्जनाओं की
देहरी से..
कब बँध कर
रहती आई हैं
वे सब
मान मिले
तो ..
अपने आप ही
बना लेती हैं
मर्यादाओं के दायरे
बंधनों में ही ढूँढती हैं
मुक्ति..
सीमा उल्लंघन से
कब बन जाती हैं
सुनामी
पता ज़रा देर से ही
चलता है …
*
बड़ा कठिन है
‘सब ठीक है’ का
नाटक करना
अनजान होना
जान कर..
व्यथा ढकने के लिए
मुखौटे पहने
बीते जा रहा है वक़्त
दम घुटने लगा है
अब..
जी चाहता है
पूरी ताक़त से
चिल्लायें
मगर इस से होना
क्या है ..
सब की अपनी-अपनी
ढपली
अपना-अपना राग है
सच तो यही है
कि..
अपनी खामोशी भी
उन्हें अंतरंगता ही
लगती है
उलझनों के भंवर
के फेर में ..
कितने ही दिनों से
हम अपरिचितों की तरह
एक ही घर में
अलग-अलग घर बसाये
बैठे हैं …!!