भोर से सांझ तक ..
एक आलस भरा दिन
मुट्ठी से रेत सा
निकल गया..
चलो ! अच्छा है
ज़िन्दगी के रजिस्टर में
एक दिन और..
दिहाड़ी का पूरा हुआ ।
*
समय की शाख से टूट कर
एक पल.,,
चुपके से आ गिरा सिरहाने पर
ऐसे समय में
रात की साम्राज्ञी को
ठाँव कहाँ..
बेचारी बेघर सी भटकती
रहेगी अब
दृग पटल के इर्द-गिर्द ।
*