आ गई फिर से दुबारा,
भूली बिसरी याद कोई।
कह सके हम जिसको अपना,
ऐसा न था नाम कोई॥
सपनों की सी बात लगती,
वे आंगन वे गली-कूँचे।
देख कर अब लोग हम से,
नाम के संग काम पूछे॥
स्वजनों से दूर जा कर,
स्वयं की पहचान खोई।
कह सके हम जिसको अपना,
ऐसा न था नाम कोई॥
अल्हड़ हँसी से गूँज उठते,
आँगन , छज्जे और चौबारे।
मक्कड़जालों से भरे हैं,
जीर्ण शीर्ण सब हुए बेचारे॥
धुआँ- धुआँ सा हो गया मन,
आँखें लगती खोई-खोई।
कह सके हम जिसको अपना,
ऐसा न था नाम कोई॥
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