मेघों की उदंडता अपने चरम पर है
धरा से लेकर धरा पर ही उलीचते रहते हैं पानी..,
अब इन्हें कौन समझाए लेन-देन की सीमाएँ ॥
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इतिहास गवाह रहा है इस बात का कि
भाईचारे में नेह कम द्वेष अधिक पलता है ..,
औपचारिकता के बीच ही पलता है सौहार्द ॥
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मेरे पास हो कर भी कितने दूर थे तुम
फासला बताने को मापक भी कम लगते हैं
उलझनों के भी अपने भंवर हुआ करते हैं
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बहुत सुँदर
जवाब देंहटाएंस्वागत एवं हार्दिक आभार !
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-11-22} को "भारतीय अनुभूति का प्राणतत्त्व -- प्राणवायु"(चर्चा अंक 4612) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
चर्चा मंच पर सृजन को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार कामिनी जी !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ओंकार सर !
हटाएंगहन भाव प्रवणता सहेजे अभिनव त्रिवेणियां मीना जी।
जवाब देंहटाएंमन मोहक।
हृदय से असीम आभार कुसुम जी !आपकी स्नेहिल उपस्थिति से सृजन सार्थक हुआ।
हटाएंतीनों त्रिवेणियों में गहरे विचार अभिव्यक्त हुए। विचार तो बहुत आते हैं पर ऐसी अभिव्यक्ति कम ही उतरती है कलम से।
जवाब देंहटाएंहृदय से असीम आभार मीना जी ! आपकी स्नेहिल उपस्थिति से सृजन सार्थक हुआ।
हटाएंसुचरित त्रिवेणी।
जवाब देंहटाएंहृदय से असीम आभार अमृता जी ! आपकी स्नेहिल उपस्थिति से सृजन सार्थक हुआ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सार्थक त्रिवेणी।
जवाब देंहटाएंआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली । हृदयतल से आभार
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