खिचीं हुई है एक
अन्तर्द्वन्द्व की अभेद्य दीवार
हर बार की तरह
इस बार भी लगता है
एक कोशिश और यह
बस..,
भरभरा कर गिरने ही वाली है
मगर कहाँ..,
हर बार की तरह इस बार भी
मेरे यक़ीन का ‘और’ और.., ही रहा
अंगुलियों से रिसती लालिमा
के साथ..,
हथेलियों की थकावट
यह याद दिलाने के लिए
काफ़ी है कि
प्रयासों में ही कहीं कमी रह गई है
कोशिश जारी रखनी चाहिए
थोड़ी मेहनत की और दरकार होगी
***
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 🙏
हटाएंहाँ मीना जी। पानी की धार बिना रुके गिरती रहे तो कभी-न-कभी पत्थर पर निशान पड़ ही जाता है।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार जितेन्द्र जी 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार अनुज ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२९-०८ -२०२२ ) को 'जो तुम दर्द दोगे'(चर्चा अंक -४५३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच की चर्चा में सृजन को सम्मिलित करने के लिए बहुत बहुत आभार अनीता जी ।
जवाब देंहटाएंवाह मीना जी !
जवाब देंहटाएंआपने कवि सोहनलाल द्विवेदी की अमर रचना - 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' की याद दिला दी.
सुप्रभात सर 🙏
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करती आपकी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ ।
थोड़ी मेहनत की दरकार होगी ।
जवाब देंहटाएंसराहनीय सृजन ।
आपका बहुत बहुत आभार जिज्ञासा जी ।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ज्योति-कलश जी ।
जवाब देंहटाएंअन्तर्द्वन्द्व की दीवार गिरानी ही होगी...थोड़ी और मेहनत ही सही
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत सुन्दर।
आपका बहुत बहुत आभार सुधा जी!
जवाब देंहटाएंचिन्तनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंहृदय से असीम आभार अमृता जी ! सादर सस्नेह वन्दे !
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