यहाँ-वहाँ ,कहीं भी…,
उग आती हैं छिटपुट
घास की गुच्छियाँ
उनकी बेतरतीब सी
शाखों के बीच
गाढ़े रंगों से सराबोर
मुँह निकाल झांकता है
इक्का-दुक्का जंगली फूल
सोचती हूँ…,
रईसी के ठाठ में पलते
गुलाब और उसके संगी-साथी
उसकी जिजीविषा
और बेफ़िक्री की आदत से
ईर्ष्या भी करते ही होंगे
एक अलग सी ठसक
और…,
कहीं भी , कभी भी
सड़क - किनारे…,
झोपड़ी के पिछवाड़े
गोचर भूमि में
किसी पहाड़ की
चट्टानों के बीच
चार पत्तियों वाली
घास की गुच्छियों में
खिलखिलाता सा
खिल उठता है जंगली फूल
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