न जाने क्यों…
तुम्हारी याद मेरे मन के
दरवाज़े पर
पछुआ पवन सी
दस्तक देने लगी है
तुम्हारे घर का आंगन
नींद में भी
मेरी स्मृतियों में
जीवन्त हो उठता है
मैंने कभी…
तुम्हारे घर में कोई
पूजाघर तो नहीं देखा
लेकिन
उपले थापते वक़्त
तुम्हारे कंठ से
गुड़ की मिठास से भरे
मांड राग में
भजन बहुत सुने हैं
न जाने क्यों …
वक़्त के साथ अब सब कुछ
बदल सा गया है
मगर
मेरे लिए तुम्हारे
घर का आंगन
स्वप्न में सजीव हो कर
पूजाघर जैसा ही बन गया है
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