मुझे अच्छे लगते हैं
पहाड़….,
इनके अनन्य सखा
चीड़ -चिनार और देवदार
अठखेलियां करते हुए
देते हैं मौन आमन्त्रण
अपने पास आने का
भोर के धुंधलके में
पहाड़ों से झांकती
ऊषा का सौन्दर्य
शीशी में बंद इत्र की महक सा
मुझे बाँधता है अपने
सम्मोहक आकर्षण में
सुदूर घाटी में जब बजाता है
कोई चरवाहा बांसुरी
तो झूमने लगती है
पूरी वादी तब ये...
अचल और स्थितप्रज्ञ
साधक से खड़े रहते हैं
अपनी ही धुन में मग्न
निर्विकार और निर्लिप्त
उतुंग शिखरों पर
पहने धवल किरीट
मुझे खींचते हैं
अपनी ओर…,
दबाए सीने में
असीमित हलचल
सदियों से सभ्यताओं के
संरक्षक और संवर्द्धक
सरहदों के रक्षक हैं
पहाड़ … ।।
***
[चित्र:- गूगल से साभार]