गुलेरी जी की तरह-
"उसने भी कहा था"
यूं ही रहना ,
एक अदृश्य डोर में बंधे
अच्छे लगते हो ।
डोर के हिलते ही ,
प्राणों का स्पदंन
यूं झलकता है ..,
जैसे ठहरे पानी के ताल में
कंकड़ी फेंकने से ,
लहरें उठीं हों ।
मगर अब …,
समय बदल गया है ,
डोर के तन्तु
जीर्ण-शीर्ण से दिखते हैं ।
और ठहरे पानी में भी
कंकड़ फेंकने की गुंजाइशें,
समापन के कगार पर हैं ।
क्योंकि वहाँ भी अब
ईंट-पत्थरों के ,
जंगल उगने लगे हैं।
***
[ चित्र:- गूगल से साभार ]
बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसच डोर का स्पंदन और उससे बँधा अपनतत्त्व का भाव
धीरे-धीरे धागे के रंग के साथ उस रिश्ते को और मजबूत कर देता।
सराहनीय सृजन।
सादर
बहुत बहुत आभार प्रिय अनीता जी ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई। स्नेह....,
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-12-2021) को चर्चा मंच "रजनी उजलो रंग भरे" (चर्चा अंक-4279) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा मंच की चर्चा ‘रजनी उजले रंग भरे‘ में सृजन को सम्मिलित करने के लिए सादर आभार सर 🙏
हटाएंसही है , शुरू में यूँ लहरें ही उठती हैं जैसे जैसे समय बताता है तो सब टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड लेने लगते हैं । अब ईंट पत्थर के जंगल उगाओ या उनसे सिर फोड़ो समझौते करने पड़ते हैं ।।
जवाब देंहटाएंगहन सृजन।
संसार के व्यवहारिक नियम का सार समझाती आपकी अपनत्व भरी सारपूर्ण प्रतिक्रिया ने मेरी लेखनी को नवऊर्जा के साथ सफल बनाया । हृदय की असीम गहराइयों से हार्दिक आभार मैम 🙏
हटाएंबीतता ** बताता नहीं
जवाब देंहटाएंजी 🙏😊
हटाएंडोर के तन्तु
जवाब देंहटाएंजीर्ण-शीर्ण से दिखते हैं ।
और ठहरे पानी में भी
कंकड़ फेंकने की गुंजाइशें,
समापन के कगार पर हैं ।
क्योंकि वहाँ भी अब
ईंट-पत्थरों के ,
जंगल उगने लगे हैं।..जीवन संदर्भ की सारगर्भित व्याख्या । अन्तर्मन को छूती सराहनीय रचना ।
आपकी सारपूर्ण प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आभार।
सस्नेह।
कविता के मर्म को अनुभूत कर सकता हूँ, कर लिया है मैंने।
जवाब देंहटाएंआपकी सृजन को मान प्रदान करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हार्दिक आभार जितेन्द्र
हटाएंजी !
उम्दा रचना आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आ. दीपक कुमार भानरे जी ।
हटाएंबेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सखी 🙏🌹
हटाएंमगर अब …,
जवाब देंहटाएंसमय बदल गया है ,
डोर के तन्तु
जीर्ण-शीर्ण से दिखते हैं ।
आने वाले वक्त में ये बची-खुची डोर भी टुट जायेगी,शायद...
अन्तर्मन को छूती लाजवाब अभिव्यक्ति मीना जी,सादर नमन
आपकी सृजन को सार्थकता प्रदान करती सराहना सम्पन्न
हटाएंप्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हार्दिक आभार कामिनी जी । सस्नेह अभिवादन!
गहरे भाव ...
जवाब देंहटाएंये स्पंदन गूंजने लगता है कई बार मन के अंतस में ...
कमाल की अभिव्यक्ति ...
आपकी सृजन को मान प्रदान करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हार्दिक आभार नासवा जी।
हटाएंथोड़े में कोई सागर भरना आप से सीखें मीना जी गज़ब की बात कही है आपने, सच शुष्क होती संवेदनाएं भी अब जैसे पर्यावरण के भेंट चढ़ रही हैं।
जवाब देंहटाएंवहाँ भी अब
ईंट-पत्थरों के ,
जंगल उगने लगे हैं..
अद्भुत!
आपकी स्नेहसिक्त सारगर्भित प्रतिक्रिया सदैव मेरे लेखन को जीवन्त बनाती है । हार्दिक आभार कुसुम जी 🙏💐
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हार्दिक आभार सर !
हटाएंजब समय के बदलाव के साथ डोर जीर्ण-शीर्ण होने लगी तो तरंगों की उम्मीद ही क्या करनी...
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक एवं विचरोत्तोजक
लाजवाब सृजन।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । सस्नेह आभार
जवाब देंहटाएंसुधा जी!