बिन बुलाए मेहमान सी
चली आती हो सात तालों में बंद
मेरे मन के दरवाजे पर..
कभी अनुराग बन
तो कभी विराग बन
तुम्हारी अंगुली थामें
चंचल हिरण सा...
मेरा मन थिरकता है
खुले दरवाजे की दहलीज पर
मेरा मौन मुखर हो विहंसता है
अचानक कहीं से विहग की
टहकार आती है
बेसुध सी चेतना
वर्तमान के आंगन में
आज की महत्ता का
मंथन कराती है
मौन की गहराइयों में
मन डूबता-उतराता है
और इसी के साथ
एक-एक बंद ताले
साकार और सजीव हो ...
मांग उठते हैं हिसाब
अपनी-अपनी गुमशुदा कुंजी का…
***
【चित्र :- गूगल से साभार】
भला क्यों न आए बिना बुलाए मेहमान ? आखिर उसी में तो जान भी है न । बहुत ही सुन्दर सृजन । अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंआपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ अमृता जी 🙏
हटाएंसुंदर सराहनीय अभिव्यक्ति,सच कभी न कभी अंतर्मन में दबी हुई चेतना को जीवन की सच्चाई का बयान देना पड़ता है ।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार जिज्ञासा जी । सस्नेह वन्दे !
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०३-०९-२०२१) को
'खेत मेरे! लहलहाना धान से भरपूर तुम'(चर्चा अंक- ४१७७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच प्रस्तुति में रचना सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार अनीता जी। सस्नेह वन्दे !
हटाएंमन को छूते एहसास, भावपूर्ण सृजन दी।
जवाब देंहटाएं----
गुमशुदा कुंजियों का बहाना कर
तालों का बार-बार स्पर्श
अवचेतन मन के
दरवाजों की झिर्रियों से
हौले-हौले आती सुगंध
कहाँ बिसराने देती है
निर्वासित स्मृतियों को।
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प्रणाम
सादर।
हृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार श्वेता जी।
जवाब देंहटाएंसस्नेह वन्दे !
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, मीना दी।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ज्योति जी।
हटाएंबहुत ही सुन्दर हृदय स्पर्शी सृजन मीना जी, ऐसे पलों का अनुभव तो सभी करते हैं पर इन्हें शब्दों में पिरोने की महारत आप ही को हासिल है, लाजबाव.... सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार कामिनी जी । आपकी सराहना सदैव लेखनी में नव उत्साह का संचार करती है । सस्नेह वन्दे !
हटाएंबेसुध सी चेतना
जवाब देंहटाएंवर्तमान के आंगन में
आज की महत्ता का
मंथन कराती है
मौन की गहराइयों में
मन डूबता-उतराता है---वाह बहुत खूब लिखा है मीना जी।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार संदीप जी ।
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