नाराज हैं मुझसे
मेरी सबसे गहरी दोस्त
किताबें..
कल धूल झाड़
करीने से लगा रही थी तो
मानो कर रहीं थीं
शिकायत-
माना 'कोरोना काल' है
एक साल से
तुम परेशान हो..
लहरें आ रहीं हैं -
पहले पहली और अब दूसरी
यह भी सच है कि
बाहर आना-जाना मना है
दूरी बनाये रखनी भी
जरूरी है
मगर हम तो हैं ना..
घर की घर में,घर की सदस्य
फिर हम क्यों कैद हैं
तुम्हारी आलमारी में
एक साल से..,
हमसे यह अबोलापन
और
दूरी क्यों ?
***
【चित्र-गूगल से साभार】
मगर हम तो हैं ना..
जवाब देंहटाएंघर की घर में,घर की सदस्य
फिर हम क्यों कैद हैं
सही कहा किताबों ने,वही तो हमारी सच्ची सखी है फिर उनसे दुरी क्यों।
हर एक मनोभाव को आप कितनी सरलता से कह जाती है मीना जी।सुंदर सृजन
नववर्ष और नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये आपको
आपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया से सृजन को मान मिला कामिनी जी । नववर्ष और नवरात्रि की आपको भी हार्दिक शुभकामनाएँ ।
हटाएंबेहतरीन रचना सखी।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से बहुत बहुत आभार सखी ।
हटाएंबिल्कुल सही पूछा किताबों ने बहुत सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंआपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से बहुत बहुत आभार विमल जी ।
हटाएंबिलकुल वाजिब शिकायत ही आपकी दोस्तों की . वैसे ये शिकायत मेरी सखी भी कर रहीं कि ....
जवाब देंहटाएंक्या हुआ ऐसा कि
शुरू करती हो
हमें पढना
बहुत प्यार से
और कुछ पृष्ठ
पढ़ते पढ़ते
अचानक ही हो जाती हो
निर्मोही ,
रख देती हो एक तरफ
करती रहतीं हैं
हम इंतज़ार
पर नहीं आती
बारी हमारी ,
अब कैसे बताएं कि
अब नहीं देतीं साथ मेरा
मेरी ही आँखें ,
समझ जाएँगी अपने आप
कर देंगी मुझे माफ़
रहेंगी मेरे साथ .
और मैं पढ़ लूँगी
कभी कभी कहीं से भी
फिर कुछ पृष्ठ .
बस
अब दोस्ती का
इतना ही सिलसिला बाकी है ...
बस कुछ अपने मन की भी कह गयी ... सुन्दर रचना ... किताबों का मानवीकरण सुन्दर बन पड़ा है ...
अद्भुत और अप्रतिम !! बस..लिखना सार्थक हो गया आपकी इतनी प्यारी कविता प्रत्युत्तर में पाकर । हार्दिक आभार 🙏🌹🙏
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-04-2021 को चर्चा – 4037 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सृजन को चर्चा मंच की चर्चा में सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार दिलबाग सिंह जी ।
हटाएंबहुत सुंदर..👌
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार शिवम् जी ।
हटाएंमगर हम तो हैं ना..
जवाब देंहटाएंघर की घर में,घर की सदस्य
फिर हम क्यों कैद हैं
तुम्हारी आलमारी में
एक साल से..,
किताबों के जरिए किताबों की अहमियत बयान कर दी है आपने....
बढ़िया कविता
शुभकामनाओं सहित,
सस्नेह
डॉ. वर्षा सिंह
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन का मान बढ़ा । हृदय से असीम आभार वर्षा जी !
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना, संगीता जी के मन की बात भी अच्छी लगी, किताबे सहेली होती हैं, जब अकेली होगी तो शिकायत करेगी ही, हम अपने जीवन से जोड़ते हैं उसे, और प्यार भी करते हैं, हमारी लापरवाही पर उसका शिकायत करना तो बनता ही है। हमी ने तो ये हक उसे दे रक्खा है, सही है न मीना जी, बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से लेखन को मान मिला ज्योति जी!हृदयतल से असीम आभार ।
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंचैत्र नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु सादर आभार सर!
हटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन आदरणीय मीना दी।
जवाब देंहटाएंसादर
सराहना भरी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से बहुत बहुत आभार
हटाएंअनीता जी !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु सादर आभार सर!
हटाएंशिकायत वाज़िब है उनकी। काल चाहे कोई भी हो, सच्चा पुस्तक-प्रेमी अपनी पुस्तकों की उपेक्षा नहीं कर सकता। बहुत ही अच्छी बात कह दी है मीना जी आपने अपनी इस पोस्ट के माध्यम से।
जवाब देंहटाएंसृजन सफल हुआ जितेन्द्र जी आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया से । हृदयतल से धन्यवाद ।
हटाएंनिश्चय ही किताबें हमारी बारहमासी सार्वकालिक सार्वत्रिक मित्र हैं। कहा गया है -A man is known by the company he keeps , by the books he reads .किताबें कई धर्मों का केंद्र हैं वह जो एक किताब को प्रामाणिक मानते हैं कतेब (कतैब )कहाते हैं ,इस्लाम ,ईसाई ,यहूदी ,बौद्ध ,सिख ऐसे ही पंथ हैं।
जवाब देंहटाएं24x7x365 हर घड़ी पल छिन ,
निभाती साथ हैं ,
बढ़ाती ज्ञान हैं किताबें ,
कोई हर्ज़ नहीं है किताबी कीड़ा बनने कहानी में
- उतने समय आदमी कोई खुराफात तो नहीं करेगा ,उलटा सीधा नहीं सोचेगा। स्वाध्याय से ही लोग आगे बढ़ें हैं ,डिग्रियां रोज़ी रोटी मुहैया करवाती हैं किताबों का संसार ब्रह्म की तरह विस्तीर्ण विस्तारित है। शौक का कोई अंत नहीं है सीमा नहीं है विषय की धंधे की सीमा है। सुंदर सांकेतिक आलेख किताबों पर मीना भारद्वाज जी का :
नाराजी
नाराज हैं मुझसे
मेरी सबसे गहरी दोस्त
किताबें..
कल धूल झाड़
करीने से लगा रही थी तो
मानो कर रहीं थीं
शिकायत-
माना 'कोरोना काल' है
एक साल से
तुम परेशान हो..
लहरें आ रहीं हैं -
पहले पहली और अब दूसरी
यह भी सच है कि
बाहर आना-जाना मना है
दूरी बनाये रखनी भी
जरूरी है
मगर हम तो हैं ना..
घर की घर में,घर की सदस्य
फिर हम क्यों कैद हैं
तुम्हारी आलमारी में
एक साल से..,
हमसे यह अबोलापन
और
दूरी क्यों ?
सारगर्भित एवं विस्तृत व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार आदरणीय 🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, किताबों के प्रति सुंदर मनोभावों को व्यक्त करती उत्कृष्ट रचना ।
जवाब देंहटाएंआपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने रचना का मान बढ़ाया.., हार्दिक आभार जिज्ञासा जी!
हटाएंआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
जवाब देंहटाएंउपयोगी सूचना के लिए सादर आभार ।
हटाएंमन परेशान हो तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता ... फिर किताबें हों या कुछ और .... इसलिए सहज, सरल, उलासित मन का होना जरूरी है ... काश ये करोना काल जल्दी ही ख़त्म हो और प्रफुल्लित हों सभी ...
जवाब देंहटाएंमनोबल संवर्द्धन करती प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार नासवा जी! आपको सपरिवार रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
हटाएंकिसी को ज्यादा नाराज करना भी अच्छा नहीं । मना लेना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने । आजकल किताब के पृष्ठ खुले रहते हैं और मन कोरोना की भयावहता से कभी कहीं तो कभी कहीं भटकता रहता है ।
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