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मंगलवार, 30 मार्च 2021

झरें होंगे चाँदनी मे , हरसिंगार...

                     


झरें होंगे चाँदनी मे ,

 हरसिंगार...

 निकलेंगे अगर घर से,

 तो देख लेंगे ।


 नीम की टहनी पर,

 झूलता सा चाँद..

 मिला फिर से अवसर,

 तो देखने की सोच लेंगे।


 शूल से चुभें,

 और द्वेष से सने..

आ गिरे सिर पर ,

वो पल तो झेल लेंगे।


जिन्दगी छोटी सी,

 और उलझनें हजार..

फुर्सत से बैठेंगे कभी,

 तो गिरहें खोल लेंगे।


कैसे करनी है पार,

 जीवन की नैया...

बनेंगे मांझी और सोचेंगे,

 तो हल खोज लेंगे।

***

【चित्र : गूगल से साभार】

रविवार, 21 मार्च 2021

।।दोहे।।

होली के त्यौहार पर, बढ़ती कीमत देख ।

घनी घटा सी घिर गई, आकुलता की रेख ।।


जीवन-यापन प्रश्नचिन्ह, हाल हुए बेहाल ।

सुरसा मुख सी बन गई, महंगाई विकराल ।।

                                       

साल भर से झेल रहे, कोरोना की मार ।

अंक गणित के आकड़ें, मंदी में बेकार ।।


रंग अबीर गुलाल अब, बीते युग की बात ।

बस दो ग़ज का फासला, होली की सौगात ।।


मैं अपनी इतनी बड़ी, मुझ सम कोऊ नाहि ।

मानव मन ऐसे बसी, ज्यों कुंभी जल माहि ।।


***





रविवार, 14 मार्च 2021

"दायरे"

दायरे हैं कुछ

जो बाँध रखे हैं जतन से

अपने आस-पास

उनमें डूब कर 

अपनी अलग सी दुनिया में

जीने का आनंद

गूंगे के गुड़ सरीखा है

जो महसूस तो होता है

मगर..

बयान नही होता

उन दायरों में सेंध

असह्य पीड़ा भरती है

 दिलोदिमाग में

अपने सुकून की खातिर

फिर से एक नई कोशिश 

और..

उम्र का एक कीमती हिस्सा

निकल जाता है

चटके दायरों के

खाँचें भरने में

चिंतन तो यही कहता है-

'सर्वे भवन्तु सुखिनः'

या फिर

'वसुधैव कुटुम्बकम'

ऐसे समय में

सांसारिक व्यवहारिकता

की खातिर याद आती है

'निदा फ़ाज़ली' की एक ग़ज़ल

जो गूंजती है कानों में

'जगजीत सिंह जी'आवाज में

गुड़ की मिठास सी..

"दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला'


***

बुधवार, 10 मार्च 2021

'सम्मोहन"

उस पार के.. 

अज्ञात को ज्ञात करने 

के लिये

एक सम्मोहन है

 जो अक्सर

देता है मुझे आमन्त्रण

पाँवों की एक

अबूझ सी रस्साकस्सी है 

लहरों के साथ…

बजरी सी माटी मिल

 लहरों संग

 खिसका रही है 

उनका अस्तित्व

बस एक जिद्द है 

जिसके बल पर

 खड़ी हूँ निश्चल सी

एकाग्रता है कि..

मंत्र मुग्ध है

अपने आप में

जानती हूँ जब यह बंधन टूटेगा 

मन करेगा कि..

चलती चली जाऊं

 सागर के उस पार 

जहां उफ़ुक़ पर

डूब रहा है सिंदूरी सूरज


***

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

"एक कविता"

                     


गहमागहमी..

 बेतहाशा हताशा 

के दौर में ..

मन की निराशा

किसी कलमकार के 

मन की..

अंत:सलिला

 बन बहती है

काग़ज और कलम

 के साथ

नहीं उकेरे जाते 

चंद अक्षर..

एक संगतराश 

जैसे हाथ मिलते हैं 

दिलो-दिमाग के साथ

और 

अनगढ़ से भावों को

तराशते हैं ..

अभिव्यक्ति में

जो दीप्त है

ऊषा किरण सी

खिलते पुष्प सी

कभी-कभी

अश्रुबिंदु सी..

ढलती हैं

करूणा के सागर में

तब जा कर …

सृजित होती है

शिशु मुस्कान सी 

एक कविता..


***