जिद्दी सा हो गया मन
अब कहीं लगता ही नहीं
घर तो मेरा अपना है
मगर अपना लगता नहीं
सारी सोचें बेमानी सी है
लफ्ज़ों में बयां होती कहाँ हैं
की बहुत कहने की कोशिश
ढंग कोई जँचता नहीं
दिल की जमीन पर
घर की नींव धरी है
नटखट सा कोई गोपाल
अब वहाँ हँसता नहीं
स्मृतियों की वीथियाँ
भी हो रही हैं धूमिल
साथ का कोई संगी-साथी
अब वहाँ रहता नहीं
खाली-खाली सी बस्ती है
खाली चौक- चौपाल
परदेसी से इस आंगन में
अब कोई बसता नहीं
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