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सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

"ज्योत्सना का रात पर पहरा लगा सा है"

                               

ज्योत्सना का रात पर , पहरा लगा सा है ।

आसमां का रंग भी , उजला-उजला सा है ।।


पत्तियों  में खेलता ,एक शिउली का फूल ।

डालियों के कान में ,कुछ कह रहा सा है ।।


हट गया  मुखौटा ,जो पहने हुए थे वो ।

तब से मन अपना भी ,कुछ भरा-भरा सा है ।।


दर्द बढ़ जाए जब ,सीमाओं से परे ।

लगता यही कि वक्त ,फिर ठहरा हुआ सा है ।।


हो थमी जिसके हाथों ,अपने समय की डोर ।

आने वाला उसी का कल ,खुशनुमा सा है ।।


***

रविवार, 18 अक्टूबर 2020

"क्षणिकाएं"


जागती आँखों ने

देखे हैं चंद ख्वाब

असामान्य सी 

सामान्य परिस्थितियों में

और मन उनको 

सहेजने की 

जुगत में लगा है

✴️

जिस मोड़ पर

तुम्हें  छोड़ा था

मेरे मुड़ने के बाद भी

जिद्द में...

तुम आज भी वहीं खड़े हो

चलो …

जो भी हुआ अच्छा हुआ

सार्थक हुआ अपना यूं 

बिछड़ना भी...

मुझे हराने की चाह ने

तुम्हे पर्वत बना दिया

और मुझे … 

बहता दरिया

✴️

खुद में खो कर 

खुद के करीब रहना 

अक्सर...

सुकून ही देता है

 सुना है बाहर

अंधेरों की दुनियां 

उजालों पर भारी हैं

✴️✴️✴️

बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

"साथी"

                  


जीवन नहीं मधुमास साथी ।  

कठिन बहुत अभ्यास साथी ।।


सुख-दुख  दोनों जीवन पहलू ।

अब तक का इतिहास साथी ।।


छम-छम बरसें बूंदें घन से ।

मन में फिर भी प्यास साथी ।।


होती नहीं हर चाहत पूरी ।

मत बन इनका दास साथी ।।


गांव बसा यादों का मन में ।

उसमें अपना वास साथी ।।


***

【 चित्र - गूगल से साभार 】



एक बार तरही ग़ज़ल के बारे में पढ़ते हुए राहत इन्दौरी जी की कलम से निसृत - तू शब्दों का दास रे जोगी..पढ़ी जो बाद में -जोग कठिन अभ्यास रे जोगी..में ढलती चली गई . एक अकिंचन प्रयास मेरी ओर से ।

      

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

"जी चाहता है"

जी चाहता है...

अपनी तूलिका में

लेकर सातों रंग 

रंग दूं कोरे कैनवास

भर दूं..

शब्दों की गागर से

भावशून्य सागर

खोज लूं..

सृष्टि- रहस्य 

हो जाऊँ…

अपरिचित से परिचित

निर्बल से सबल

मगर..

जानती हूँ 

मैं भी इतना

आसान कहाँ ..

लक्ष्य भेदना

अर्जुन नहीं 

मैं ...

कर्ण जैसा कुशल धनुर्धर 

बनना चाहती हूँ

अपनी राह में आए कंटक

बस...

खुद हटाना चाहती हूँ

***

शनिवार, 3 अक्टूबर 2020

"क्षणिकाएं"

✴️

अनकही व्यथा मन में दबाये

धूसर मेघ …

बिना नागा चले आते हैं

सांझ की अगवानी में

और न जाने क्यों...

ढुलक जाते हैं अश्रु बूँद से

धरा के आँचल में..

✴️

खड़ी रहने दो

अपरिचय की दीवार

कुछ भरम..

मुस्कुराहटों में सजे 

बड़े भले लगते हैं

✴️

राख के तले

दब सोयी है चिंगारी

अपने आप में 

सुलगती सी..

मत मारो फूंक !

सुनते  हैं..एक फूंक से

वह दावानल भी

बन जाया करती है

✴️✴️✴️