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सोमवार, 28 सितंबर 2020

"सीख"

अन्तर्मन से एक

 आवाज़ आई

कुछ कहना है...

चुप !!

विवेक ने तुरन्त 

कस दी नकेल

और...

 दे डाली एक सीख

जब प्रकृति ने 

संरचना में दिये

सुनने को दो कान..

देखने को दो आँख…

और

बोलने को एक जीभ 

तो कुछ तो देख 

समझ के सीख

 सत्य वचन..

दाँतों की लाडली

यह तो..

बोल कर निकल लेती है

चंचल जो ठहरी

और..उसके बाद बेचारा मन

 झेलता है..

झाड़ू की सींक से

बातों के चाबुक

जो पड़ते दिखते तो नही

बस..

अपने निशां छोड़ जाते हैं

---

 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

'मुक्तक"

चले जब हाथ थामे फिर संग छोड़ना क्यों है ।

मिले कैसी भी दुश्वारी अब मुँह मोड़ना क्यों हैं ।।

बने जन्मों के साथी हैं  सब सुख-दुख में साझी ।

इरादे नेक  हैं अपने तो  बंधन तोड़ना क्यों है ।।


यादों की गलियों में मैं  बचपन को ढूंढती हूँ ।

पल-पल घटते जीवन में अमन को ढूंढती हूँ ।।

मेघों को देख  दृगों में उतर आती है करूणा ।

इन्द्रधनुषी सुमनों से खिले उपवन को ढूंढती हूँ ।।


थोड़ा भरोसा है खुद पर बहुत ज्यादा नही है ।

सीमित रहेगी सदा वह  यह भी तो वादा नहीं है ।।

न तो मोह की सीमा न चाहतों पर बंधन ।

रुक जाए गंतव्य से पहले धारा का इरादा नहीं है ।।


 🍁🍁🍁🍁


मंगलवार, 22 सितंबर 2020

"मन की वीथियां"

ब्रह्मपुत्र का सिन्दूरी जल

और..

भोर की पहली किरण 

पुल से गुजरते हुए

 एक तैल चित्र सा दृश्य

अक्सर दृग पटल पर

उभर आता है

निरभ्र गगन के कैनवास पर

 इन्द्रधनुष सा...

कुछ नाविक जाल लिए

कुछ मछली के ढेर लिए

घर से आते या घर जाते

ना जाने कौन से

 सम्मोहन में बंधे ..

 हिमालय श्रृंखला की गोद में

 बसे इस अँचल में

एक बार का गया कोई

वापस अपने देस नहीं लौटता..

भूला-भटका यदि कोई

लौट भी आता  है तो...

 मेरी तरह स्मृति के गलियारों में

भटकता फिरता है

कामरूप के 

काले जादू में बंधा

उस नाव और नाविक सा..

"जा रहा है कि आ रहा है" के

 भंवर जाल का बोध कराता

जिसमें...

उलझ कर रह जाता है मन

दृष्टिभ्रम सदृश .. 


***

 

बुधवार, 16 सितंबर 2020

"चिंतन"

                          
आत्म दर्शन के लिए
समय कहाँ है हमारे पास
बाहरी आवरण को ही
जाँच-परख कर
ऐंठे फिरते हैं गुरूर में
देख भाल के अभाव में 
अन्तर्मन रहता है 
सदा ही उपेक्षित 
देह के एक कोने में
मासूम बच्चे सा
उठाता है सिर कई बार
जोर लगा कर 
तो व्यस्त भाव से 
पूरी श्रद्धा और हक  से 
दबा देते हैं 
उसकी आवाज़
जैसे..
घर आए मेहमान के 
आतेथ्य भाव में मगन हम
अपने ही घर में
अपने ही बालक को 
भूखा सोने को मजबूर करते हैं

***

सोमवार, 14 सितंबर 2020

"बदलता मौसम"

सभी विद्वजनों को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाइयाँ 💐💐 🙏🙏💐💐
--
आज कल आपसी सौहार्द्र 
और विमर्श की बातें कम
और विवाद की बातें
अधिक होती हैं..

मन के आंगन की
चहक खो सी गई है कहीं
क्योंकि एक कप चाय में अब
पहले वाली ताजगी नहीं रही..

चाँद -सितारे और सूरज भी
समझदार हो गए हैं..
बदलती हवाओं के रूख के साथ
कम ही दर्शन देते हैं..

बारिश और ठंड ने मिल कर
शहर के बिसूरते से मूड पर
झक्कीपन  की चादर 
चँदोवे सी तान दी..

एक शंका सी है मन में..
बदली आबोहवा के साथ 
सामाजिक दूरियां
कहीं भावात्मक दूरी 
 में तब्दील न हो जाए...

***

बुधवार, 9 सितंबर 2020

'सांझ"

                              










सांध्य सुंदरी बन के अप्सरा
भू लोक पर आई
देख धरा का रूप सलोना
मन ही मन सकुचाई

हरित रंग की ओढ़े चूनर
सतरंगी फूलों के झूमर
मादक सी पछुआ बयार से
धान फसल हरषाई

इसकी भोर का क्या है कहना
ये तो आठ प्रहर में गहना
पंछी चहके अमराइयों में
सूर्य किरण इठलाई

गोवत्सों की कंठ घंटियाँ
गायों की स्नेहिल गलबहियाँ
 देख देख वसुधा का आंगन 
उसने सुधबुध बिसराई

सांध्य सुंदरी बन के अप्सरा
भू लोक पर आई
देख धरा का रूप सलोना
मन ही मन सकुचाई


🍁🍁🍁
【चित्र : गूगल से साभार】

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

"तुम तो नहीं हो"

तुम तो नहीं हो

मगर..

तुम्हारी यादों में 

आजकल

मन भटकता बहुत है 

कमरे की खिड़की से

निकल..

पहुँच जाता है सोने सी 

भूरी बालू के छोटे से

 ढूह पर...

पूछता है तुमसे

ये टीले पर धान कम 

और...

उस तलाई में ज्यादा क्यों ?

पलट कर तुम

 मुझे अन्तर समझाया करती थी 

अब तुम तो नहीं हो

बस...

यादें हैं तुम्हारी

मगर इस मन का क्या ?

 बौराया सा 

एक के बाद दूसरा..

और न जाने कितने ही

प्रश्न करता था

 तुम से...

कितने ही ऐसे सवाल

जिनके जवाब 

तुम्हारे आँचल के 

छोर से बँधे थे

कितने ही वैसे  सवाल

जो उलझा कर तुम्हें

तुम में 

झुंझलाहट भर देते थे

पता है...कल मैंने

कच्चे आम की

सब्जी बनाई थी

और...

इतने बरसों के बाद भी

उसमें स्वाद 

तुम्हारे हाथों वाला ही था

लगता है ...

मेरे हाथ भी अब

तुम्हारे ख्यालों की

 महक से

महकने लगे हैं


🍁🍁🍁