माटी की देह से उठती मादक गंध ,
सूर्योदय के साथ दे रही है संदेशा ।
प्रकृति की देहरी पर पावस ने पांव रख दिये हैं ।।
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घंटे दिन में और दिन बदल रहे हैं महिनों में ,
मन के साथ घरों के दरवाजे भी बंद है ।
आरजू यही है महिने साल में न बदलें ।।
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वसन्त ,ग्रीष्म कब आई, कब गई,भान नहीं ,
खिड़की के शीशे पर ठहरी हैं पानी की बूदें ।
ओह ! बारिशों का मौसम भी आ गया ।।
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लेखनी और डायरी बंद है कई महिनों से ,
किताबें भी नाराज नाराज लगती हैं ।
कभी-कभी अंगुलियां ही फिसलती हैं 'की-बोर्ड'
पर ।।
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रोज का अपडेट कितने आए.., हैं..,और गए ,
सुप्रभात.. शुभरात्रि सा लगने लगा है ।
घर पर रहें..सुरक्षित रहें..यहीं प्रार्थना है ।।
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