स्त्रियाँ चाह रखती आई हैं
फूलों से व्यक्तित्व की और
रंग -बिरंगे पंखों के साथ
भावनाओं के साँचे में ढले
लौह-स्तम्भ से घर की...
जिसमें देखती हैं वे
सदियों से सदियों तक
अपनी ही हुकूमत...
अनपढ़ हो या पढ़ी-लिखी
बड़ी भोली होती हैं स्त्रियाँ
गुड्डे-गुड़ियों के खेल के साथ
बन जाती हैं माँ और दादी जैसी ...
सीख लेती हैं संवारना
अपना घर-संसार
और...स्वेच्छा से सारा दिन
बनी फिरती हैं चक्करघिन्नी ...
कभी घर तो कभी दफ्तर
जीवन समर में कमर कसे
डटी रहती हैं स्त्रियाँ...
जीवन की सांध्य बेला में
रण-क्षेत्र से लौटे सिपाही सी
घर के आंगन के बीच
तुलसी-चौरे पर जलाती दीपक
झांकती हैं स्मृति कपाट की झिर्रियों से
करती रहती हैं आकलन
खोने और पाने का….
***
【चित्र-गूगल से साभार】
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय 🙏
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सर ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 13 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमुखरित मौन में रचना साझा करने के लिए सादर आभार
हटाएंयशोदा जी ।
उपयोगी रचना।
जवाब देंहटाएंअच्छा चिन्तन है।
हार्दिक आभार सर 🙏
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(१४- 0६-२०२०) को शब्द-सृजन- २५ 'रण ' (चर्चा अंक-३७३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
शब्द-सृजन में रचना को सम्मिलित करने के लिए तहेदिल से आभार अनीता जी ।
हटाएंसुंदर चित्रन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार दी 🙏
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर 🙏
हटाएंअनपढ़ हो या पढ़ी-लिखी
जवाब देंहटाएंबड़ी भोली होती हैं स्त्रियाँ
गुड्डे-गुड़ियों के खेल के साथ
बन जाती हैं माँ और दादी जैसी ...
सीख लेती हैं संवारना
अपना घर-संसार
और...स्वेच्छा से सारा दिन
बनी फिरती हैं चक्करघिन्नी ...
सही कहा ये चक्करघिन्नी सा जीवन समर ही बन जाता है उनके लिए.... और इसी समर में विजेता होने की चाह ही है स्त्री जीवन...
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन।
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली.
हटाएंस्नेहिल आभार सुधा जी .
स्त्री-जीवन के सतत संघर्ष की चिंतनीय अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंस्वाभिमान के लिए स्वामिनी बनने का सफ़र निस्संदेह दुष्कर है किंतु सुखद परिणाम लाता अवश्य है।
बधाई एवं शुभकामनाएँ।
लिखते रहिए।
आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली आदरणीय रविन्द्र जी 🙏 सहृदय आभार ।
हटाएंबहुत खूब ... सच है नारी सा सक्षम किसी के पास नहीं ... थकती ही हो नहीं हैं ये ... सच में ये ही स्वामिनी है ...
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से आभार नासवा जी ।
हटाएंबेहद ख़ूबसूरत और भावपूर्ण कविता! बहुत बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार संजय जी ।
हटाएंबहुत ही सुंदर और सच भी ,परंतु अब समय बदल रहा है ,ऐसी औरतें कम नजर आ रही है ,ये तो हमारा समय रहा ,यही कारण है पहले भी निर्वाह हमने किया और अब भी निर्वाह हमी कर रहे है ,
जवाब देंहटाएंआपकी अमूल्य प्रतिक्रिया से लेखन के मर्म को प्रवाह मिला। समय बदले यह सोच ही सुखद अहसास है ।
हटाएंबहुत सुंदर बात कही आपने ,स्त्री की दशा में सुधार जरूरी है ,
हटाएंजी तहेदिल से आभार ज्योति जी ।
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