कुछ बातें ,कई बार
बन जाती हैं
वजूद की अभिन्न
कर्ण के ...
कवच-कुण्डल सरीखी
अलग होने के नाम पर
करती हैं तन और मन
दोनों ही छलनी
सर्वविदित है
शब्दों की मार ...
इनको भी
साधना पड़ता है
अश्व के समान
तुणीर से निकले
बाण हैं शब्द
जो लौटते नहीं..
जख़्म देते हैं
या फिर…
मरहम बनते हैं
सीमाओं को तोड़ते
अहंकार के
मद में डूबे शब्द
नहीं जानते कि
कब रख देंगे
किसी दिन
किसी…
महाभारत की नींव
★★★