ओस से गीली दूब सा
रहता है आज कल मन
होते इसके एक जोड़ी पैर...
तो कब का तोड़ सारे बाँध
पहुँच जाता भोर बेला में
बन के परदेसी पावणा...
सोने सी भूरी बालू के
रेतीले धोरों में ..
मिट जाती मन की भूख
जो बैठ जाता टखनों को
दबा के छोटी-छोटी
मरू-लहरियों में…
हथेली से दुलार कर ठंडी रेत
जब अंगुलियाँ उकेरती
कोई अपने का अपना सा नाम…
और दृगें देखती
बालू का अथाह समन्दर ..
छिटपुट फोग की झाड़ी...
चटख फूल संग हँसती
कोई नागफनी…
दूर से खोज-खबर
लेता खेजड़ी...
उसकी पत्तियों को टूंगने की
फ़िराक़ में बकरी का बच्चा..
तिनका चोंच में दाबे गौरैया..
तो यकीन मानों…
भूरी सैकत सी आँखों में
सिमट आता
सारा का सारा थार …
सारा का सारा थार …
खारे पानी की नमी सा
उन कोयों के इर्द -गिर्द !!!
★★★★★
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सर!
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
शब्द -सृजन चर्चा के लिए रचना चयन हेतु हार्दिक आभार
हटाएंकामिनी जी !
ओस से गीली दूब सा
जवाब देंहटाएंरहता है आज कल मन
होते इसके एक जोड़ी पैर...
तो कब का तोड़ सारे बाँध
पहुँच जाता भोर बेला में
बन के परदेसी पावणा...
सोने सी भूरी बालू के
रेतीले धोरों में ..वाह !दी लाजवाब 👌👌
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए स्नेहिल आभार
हटाएंअनीता जी !
शानदार लेखन 👌🏻
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार विदुषी जी 🙏
हटाएंअति सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार मैम .
हटाएंबहुत सुन्दर गवेषणात्मक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सर !
हटाएंलोक बोलों का सुन्दर प्रयोग देखने को मिला
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
आपकी अनमोल सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ...हृदयतल से आभार कविता जी ।
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंअद्भुत शब्दसंयोजन के साथ शानदार विम्ब
बहुत ही लाजवाब सृजन।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली.
हटाएंहृदय से असीम आभार सुधा जी .
निःशब्द हूँ आपकी रचना पढ़ कर
जवाब देंहटाएंमान भरी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ अनीता सुधीर जी ।
हटाएंबहुत उम्दा सृजन, बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका🙏
हटाएंओस की भीगी डूब से उपजती स्मृतियों से रची रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
हार्दिक आभार नासवा जी.
हटाएंवाह , प्रिय मीना जी! एक मन दुनियादारी जीता, तो एक मन अपने भीतर यादों के गाँव के कण कण से लिपटता , अपने भीतर ही बीते पल जीता हुआ | शायद यही हरेक संवेदशील मन की हकीकत है , क्योकि कोई भी वैभव और सुख आराम उसे अपनी माटी से अनुराग करने पर रोक नहीं लगा पाता| मार्मिक अभिव्यक्ति जो मन तरल कर जाती है \ सस्नेह -
जवाब देंहटाएंरचना का मान बढ़ाती अनमोल प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली । हृदय के मर्म तक पहुँचने के लिए बहुत बहुत आभार प्रिय रेणु बहन! सस्नेह..
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