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सोमवार, 30 मार्च 2020

"शंका"

नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।
दबी हुई है जो अंतस् में ,
मन की गाठें खोलूं कैसे ।।

अपने और परायों में यह ,
भेद कभी नही कर पाता है ।
यह जग है माया का डेरा ,
सोच यही फिर रूक जाता है ।।

दुविधा है यह मन की भारी ,
मैं इस को समझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।।

चक्र बनी हर पल फिरती हूँ ,
लघु गुरु सब की सुनती हूँ ।
कर्तव्यों की भारी गठरी ,
कौन ठांव पर रखूं कैसे ।।

अनसुलझी जीवन की गुत्थी ,
तुम बिन मैं सुलझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
भेद मैं मन के खोलूं कैसे ।।

★★★★★

16 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर सृजन। मन के भावों का सुंदर चित्रण किया है आपने। कौन अपना है कौन पराया, किसके सामने मन की बातें रखी जा सकती हैं और किसके सामने नहीं। यह दुविधा मन में हमेशा ही रहती हैं। इन दुविधाओं का सुंदर चित्रण किया है आपने।

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    1. सुन्दर सराहनीय प्रतिक्रिया से लेखन सफल हुआ ..हार्दिक आभार विकास जी ।

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  2. चक्र बनी हर पल फिरती हूँ ,
    लघु गुरु सब की सुनती हूँ ।
    कर्तव्यों की भारी गठरी ,
    कौन ठांव पर रखूं कैसे

    हृदयस्पर्शी सृजन मीना जी ,सादर नमन आपको

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  3. बहुत हृदय स्पर्शी रचना ... शंका सरल अंतस से ...

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  4. उत्तर
    1. आपकी उपस्थिति से सृजन का मान बढ़ा.. सादर आभार सखी !

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  5. दिल से निकले शब्द हैं , प्रभावशाली तो होंगे ही .....

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    1. आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली . बहुत बहुत आभार🙏🙏

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"