नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।
दबी हुई है जो अंतस् में ,
मन की गाठें खोलूं कैसे ।।
अपने और परायों में यह ,
भेद कभी नही कर पाता है ।
यह जग है माया का डेरा ,
सोच यही फिर रूक जाता है ।।
दुविधा है यह मन की भारी ,
मैं इस को समझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।।
चक्र बनी हर पल फिरती हूँ ,
लघु गुरु सब की सुनती हूँ ।
कर्तव्यों की भारी गठरी ,
कौन ठांव पर रखूं कैसे ।।
अनसुलझी जीवन की गुत्थी ,
तुम बिन मैं सुलझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
भेद मैं मन के खोलूं कैसे ।।
★★★★★
वर्तमान हालात में सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर .
हटाएंसुंदर सृजन। मन के भावों का सुंदर चित्रण किया है आपने। कौन अपना है कौन पराया, किसके सामने मन की बातें रखी जा सकती हैं और किसके सामने नहीं। यह दुविधा मन में हमेशा ही रहती हैं। इन दुविधाओं का सुंदर चित्रण किया है आपने।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सराहनीय प्रतिक्रिया से लेखन सफल हुआ ..हार्दिक आभार विकास जी ।
हटाएंचक्र बनी हर पल फिरती हूँ ,
जवाब देंहटाएंलघु गुरु सब की सुनती हूँ ।
कर्तव्यों की भारी गठरी ,
कौन ठांव पर रखूं कैसे
हृदयस्पर्शी सृजन मीना जी ,सादर नमन आपको
बहुत बहुत आभार कामिनी जी . सस्नेह नमन🙏
हटाएंबहुत ही शानदार रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका .
हटाएंबहुत हृदय स्पर्शी रचना ... शंका सरल अंतस से ...
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार नासवा जी ।
हटाएंअप्रतिम रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दी !
हटाएंबेहतरीन रचना सखी
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति से सृजन का मान बढ़ा.. सादर आभार सखी !
हटाएंदिल से निकले शब्द हैं , प्रभावशाली तो होंगे ही .....
जवाब देंहटाएंआपकी अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली . बहुत बहुत आभार🙏🙏
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