मेरे घर का आंगन ,भूरी सैकत वाला ।
वर्षा की बूँदों संग ,सौंधी खुशबू वाला ।।
गीली मिट्टी के ढेरी ,चल घर बनाते हैं ।
ये तेरी है वो मेरी ,कुछ फूल उगाते हैं ।।
आंगन का हिस्सा मेरा ,वो बगिया वाला तेरा ।
आंगन में नीम लगेगा ,डाली पर झूला होगा ।।
सर्दी वाले मौसम में ,हम सब धूप सेकते थे ।
सारे मिल के आपस में ,बस कुछ भी खेलते थे ।।
तारों की छांव तले ,जाने कितने किस्से ।
भूली वो सब बातें ,बचपन की सौगातें ।।
बहुमंजिल बनी इमारत ,बोनसई सी दिखती है ।।
घर-आंगन वाली बात ,अब सपने सी लगती हैं ।
★★★★★
अब घर नहीं हैं, मकान हैं
जवाब देंहटाएंऔर हर सू, सियासती दुकान हैं.
सही कहते हैं सर ! लेकिन आंगन वाले घर बहुत याद आते हैं । सादर आभार आपकी अनमोल उत्साहवर्धन करती पंक्तियों के लिए🙏🙏
हटाएंजैसे घर के आँँगन गायब हो गए, वैसे ही मनुष्य के शरीर (घर) में जो हृदय रूपी आँगन था,उसका अस्तित्व भी समाप्त हो गया है। वह कागजों पर सजावट की सामग्री मात्र बनकर रह गया ।
जवाब देंहटाएंऐसा ही समझ में आता है मीना दी मुझे।
सही कहते हैं शशि भाई ! मन के आंगन की बगिया के स्नेह निर्झर सूख जाने से परिवारों के बीच भी दिखाया भर रह गया है । दुनियादारी को आप बखूबी शब्द सृजन के माध्यम से उकेरते हैं । सादर आभार आपकी अनमोल प्रतिक्रिया हेतु ।
हटाएंबहुत सुंदर सखी! सच वो आँगन बहुत याद आता है!ऐसा ही था सब आज भी है पर हम वहां नहीं है और जब होते भी हैं कुछ समय तो वो बचपन नहीं , वो अल्हड़ता नही !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर भाव सृजन साक्षात दृश्य सा।
सृजन का मर्म स्पष्ट करती आपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभार सखी । वास्तव में संचित निधि है यादों की उनमें घर का आंगन और भाई-बहनों की यादें भी शामिल हैं ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"सांध्य मुखरित मौन" के मंच पर रचना को सम्मिलित करने हेतु सादर आभार यशोदा जी ।
हटाएंबहुत सुन्दर, सैकत का जवाब नहीं।
जवाब देंहटाएंरेतीले ही होते थे पहले तो घर के आँगन।
सृजन का मान बढ़ाती और उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सर 🙏
हटाएंसर्दियों की सुबह याद आती है मुझे,अपने गांव के बड़े आँगन की
जवाब देंहटाएंदादी के हाथ की अदरक वाली चाय आँगन में बने चूल्हे से उठता हुआ सफ़ेद धुंआ आँगन में लटकी लौकी की बड़ी बेल
मीठे बोल कोयल के ,आम के पेड़ ,अमरूद के
हरी हरी क्यारियाँ फूलो से भरी क्यारियां याद आती है मुझे
अब घर-आंगन बदल कर फ्लैट बन गए हैं। यही वजह है कि हमारा आंगन छिना
संजय जी बेहद अच्छा लगा कि रचना में कहीं झलक दिखी आपको बचपन की ...कहीं कस्बे शहर बन गए तो कहीं रोजी की तलाश में लोग शहरों में बस कर वहीं के बन के रह गए । आंगन या तो सिमट गए या सूने रह गए । बहुत दिनों बाद आपकी उपस्थिति सुखद लगी ..हार्दिक आभार ।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंशब्द-सृजन में मेरी रचना को सम्मिलित कर चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए सादर आभार कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर घर आंगन का रूप सजाया है आपने अपनी कविता में.. अब तो गोबर लीपे आंगन के दर्शन भी नहीं होते सब कुछ कंक्रीट में ढल गया है.
जवाब देंहटाएंदिल दिमाग को तरोताजा करती हुई बेहद खूबसूरत रचना बधाई आपको
रचना आपको पसन्द आई इससे हर्ष की अनुभूति हुई अनु जी ! सुन्दर सराहनीय प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली । हृदयतल से असीम आभार । सस्नेह...
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
शब्द-सृजन में मेरी रचना को सम्मिलित कर चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए सादर आभार कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएं""वर्षा की बूँदों संग ,सौंधी खुशबू वाला ।।""
जवाब देंहटाएंबहुत आनंद आता हैं ऐसा पढ़ कर
बहुमंजिल बनी इमारत ,बोनसई सी दिखती है ।।
घर-आंगन वाली बात ,अब सपने सी लगती हैं
आजकल की सच्चाई कितने सरल शब्दों में ब्यान कर दी आपने
बचपन और बिना चकाचौंध वाली ज़िंदगी की सादगी भर दी आपने अपनी रचना में
बहुत प्यारी रचना
जी जोया जी..अपने बचपन के घर को और उस हिस्से क़ जो घर-आंगन में जीया था ...उसी को शब्दों में ढालने का प्रयास किया..आपकी सराहना से लेखनी का मान बढ़ा,
हटाएंहार्दिक आभार जोया जी ।
आपने पुरानी यादें ताज़ा कर दी।
जवाब देंहटाएंहम अब भी वैसे ही घर मे रह रहे हैं लेकिन
रात को बाहर खटिया लगा कर बच्चे चुटकुले,किस्से सुनाते थे, आंखमिचौली खेला करते थे, हंसते थे- हंसाते थे, वो बच्चे यानी हम अब बड़े हो गए हैं और ऐसी हरकतें नहीं करते।
हाँ आंगन वोही है गोबर और मिट्टी के लेप वाला। 😃
मन को छू गयी आपकी रचना।
अच्छा लगा यह पढ़ने के बाद कि आप उन बचपन के गलियारों से आँख-मिचौली कर आए जो प्रायः हम सब के एक जैसे हैं । बड़े होने के बाद जीवन को जीने की जुगत में समय भाग-दौड़ में कब गुजर जाता है भान ही नहीं होता । कभी कभी स्मृतियाँ ले जाती हैं उस समय में .. आपने लिखा - आंगन वहीं है गोबर-मिट्टी के लेप वाला..अपनेपन के पल साकार हो आए आँखों के आगे.
हटाएंआभार रोहित जी 🙏 ये अनुभूतियाँ साझा करने के लिए ।
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय ।
हटाएंवाह !लाज़वाब सृजन आदरणीय दीदी. पुरानी दिनों में लौट गये आपके सृजन के साथ.
जवाब देंहटाएंसादर
स्नेहिल आभार अनीता जी ..लेखन को सार्थकता मिली आपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया से । सस्नेह .
हटाएंगीली मिट्टी के ढेरी ,चल घर बनाते हैं ।
जवाब देंहटाएंये तेरी है वो मेरी ,कुछ फूल उगाते हैं ।।
बचपन के खेल और गाँव में छूटा घर आँगन याद आ गया....
बहुत ही लाजवाब सृजन
वाह!!!
स्नेहिल आभार सुधा जी । वास्तव में बचपन के दिनों की स्मृति बड़ी अनमोल है ..आपकी प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली । सस्नेह...
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जवाब देंहटाएंबहुमंजिल बनी इमारत ,बोनसई सी दिखती है ।।
घर-आंगन वाली बात ,अब सपने सी लगती हैं ।
कड़वी सच्चाई व्यक्त करती सुंदर रचना,मीना दी।
हृदयतल से स्नेहिल आभार ज्योति बहन... आपकी अनमोल
हटाएंप्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा ।
सुंदर मन को छू लेने वाला सृजन। बचपन और वर्तमान की स्थितियों को बाखूबी दर्शाती हुई कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार विकास जी ! आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ।
हटाएंघर आँगन जहां बचपन बीता होता है ... जहां आँख खुलती है वो तो दिल दिमाग़ में हमेशा के लिए बस जाता है ... उसकी यादें हमेशा दिल को सहलाती हैं ... आपने बख़ूबी उतारा है उस मंजर को इन पंक्तियों में ...
जवाब देंहटाएंलेखन सफल हुआ रचना को सारगर्भित अर्थ देती आपकी प्रतिक्रिया से..., हृदयतल से आभार नासवा जी ।
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