नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।
दबी हुई है जो अंतस् में ,
मन की गाठें खोलूं कैसे ।।
अपने और परायों में यह ,
भेद कभी नही कर पाता है ।
यह जग है माया का डेरा ,
सोच यही फिर रूक जाता है ।।
दुविधा है यह मन की भारी ,
मैं इस को समझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।।
चक्र बनी हर पल फिरती हूँ ,
लघु गुरु सब की सुनती हूँ ।
कर्तव्यों की भारी गठरी ,
कौन ठांव पर रखूं कैसे ।।
अनसुलझी जीवन की गुत्थी ,
तुम बिन मैं सुलझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
भेद मैं मन के खोलूं कैसे ।।
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