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सोमवार, 30 मार्च 2020

"शंका"

नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।
दबी हुई है जो अंतस् में ,
मन की गाठें खोलूं कैसे ।।

अपने और परायों में यह ,
भेद कभी नही कर पाता है ।
यह जग है माया का डेरा ,
सोच यही फिर रूक जाता है ।।

दुविधा है यह मन की भारी ,
मैं इस को समझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
बात हृदय की बोलूं कैसे ।।

चक्र बनी हर पल फिरती हूँ ,
लघु गुरु सब की सुनती हूँ ।
कर्तव्यों की भारी गठरी ,
कौन ठांव पर रखूं कैसे ।।

अनसुलझी जीवन की गुत्थी ,
तुम बिन मैं सुलझाऊं कैसे ।
नयनों से शंका झरती है ,
भेद मैं मन के खोलूं कैसे ।।

★★★★★

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

"आह्वान"

चाँद -सितारे करते बातें ,
रात भी बहुत उदास है ।
थका हुआ मन बैठ ये सोचे ,
कितनी निकृष्ट बात है ।।

ऐसी भी क्या भूख ,
कि कुछ भी खा गया कोई ।
किसी एक की मूर्खता पर ,
सम्पूर्ण मनु सृष्टि रोई ।।

अपने मद में डूबा ,
बन गया कोई रक्तबीज ।
बिखरी है पूरी दुनिया में ,
उसके अहंकार की छींट ।।

उस रक्तबीज की बूंदें अब ,
लील रही हैं जिन्दगियाँ ।
राह नजर आती नहीं ,
विषम हो गई परिस्थितियाँ ।।

नवरात्रि पर्व के दिन है ,
तेरा आह्वान करते हैं ।
सिंहवाहिनी ,कष्टहारिणी !
वन्दन बारम्बार करते हैं ।।

तेरे क्षुद्र जीव हैं हम सब ,
माँ हम पर उपकार करो ।
छाये हैं संकट के बादल ,
रक्षा करो माँ कष्ट हरो ।।

★★★★ 

सोमवार, 23 मार्च 2020

"मानवता"

पूरे दिन की नीरवता
और गोधूलि से पूर्व
मंदिरों की सांध्य आरती सी
घंटे ,शंख और थाली की 
गूंज….,
बालकॉनी रुपी आंगन और छत से
झांकते चेहरे हाथों में थामें
प्लेटेंं-चम्मच
और बजाते तालियां
अचानक ऊँची ऊँची इमारतें
बन गई गंगा घाट..
जहाँ सांध्य आरती में
आध्यात्म और भौतिक जगत
बिना किसी किन्तु- परन्तु
हो जाते हैं एकाकार
जल और गुड़ की तरह
विपदा की घड़ी में
कृतज्ञता ज्ञापित करते
सेवाभावियों के लिए
असीम सर्वोच्च शक्ति के लिए
जिसके हाथों में बंधी है
सृष्टि की…
समस्त जीवात्मा की डोर
और जिसके बल पर...
सिर ऊँचा किये खड़ी है
मानवता…

                              ★★★★★

मंगलवार, 17 मार्च 2020

"अधिकार"

छवि को देख गुंजन को यकीन नहीं हुआ कि यह   वही छवि है जिसकी चंचलता और शरारतों से उन पाँच सखियों की मंडली गुलजार हो जाया करता थी । अगर एक दिन वह न आती तो दूसरे दिन उसकी जम कर क्लास लगती कि कल वह कहाँ थी ? कॉलेज से बी.ए.करने के बाद वह अपने पिताजी के ट्रांसफर के साथ ही परिवार सहित भोपाल शिफ्ट हो गई । उदयपुर में सभी से फोन सम्पर्क कुछ समय रहा लेकिन धीरे-धीरे सभी घर-गृहस्थी में रम गई । अल्हड़पन की जगह परिपक्वता सभी में आ गई थी । परिपक्वता का संबंध शायद बचपन के मैत्रीपूर्ण संबंधों से दूरी और खुद की गृहस्थी में रम जाने से है बाकी विचारों की परिपक्वता को समझ पाना हर किसी के बस की बात कहाँ होती है ?
 बरसों बाद अचानक मॉल में छवि गुंजन को देख कर पहचान नहीं पाई...कितना बदल गई थी वह..चेहरे पर हरदम रहने वाली मुस्कुराहट का स्थान उदासी और गंभीरता ने ले लिया था । पुणे में चार साल से रहती छवि को पहली बार पता चला कि उसकी प्रिय सखी की ससुराल यहीं पर है । आपस में पता और  फोन नंबर ले और फिर से मिलने का वचन लेकर उन्होंने विदा ली । मिलने का मौका भी बहुत जल्दी ही मिला..एक दिन गुंजन का फोन आया कि पति व घर के सभी सदस्य शादी में गए हैं वह अस्वस्थ होने के कारण घर पर ही है क्या वो उससे मिलने आ सकती है ? मोहित स्कूल से घर आ चुका था अतः ना का तो सवाल ही नहीं था , पति को फोन पर जाने की सूचना देकर  छवि के घर जाने के लिए दोनोंं माँ -बेटा ऑटो स्टैंड की ओर बढ़ गए ।
 घर पर छवि और उसकी बिटिया थीं । जो माँ के निर्देशानुसार मोहित को स्टडीरूम में ले गई । उसे याद आया उनके ग्रुप में छवि की सगाई बी.ए. फाइनल कम्पलीट होने से पहले ही हो गई थी , अक्सर वे सभी उसको कितना छेड़ा करती थी और दूध सी उजली छवि उनके हँसी-मजाक के चलते गुलाबी हो जाया करती थी । मगर अब वो छवि कहाँ थी...ये छवि तो अलग ही है मानों मूर्ति खड़ी हो  सामने । बस एक ही अन्तर था वह सजीव थी । बहुत पूछने की जरूरत ही नही पड़ी..बच्चों के हटते ही वह उसके कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी । कुछ देर बाद सहज होने पर उसने बताया--- परम्पराओं में बंधे ससुराल में सब कुछ होने के साथ-साथ अपनी वर्जनाएं भी हैं । साधारण व्यक्तित्व के मालिक पतिदेव को उसका चंचल स्वभाव पसंद नहीं था , उसकी खिलखिला कर हँसने की आदत उनकी नजर में फूहड़ता थी तो सबसे घुलमिल कर बात करने का स्वभाव निहायत ही मूर्खतापूर्ण हरकत । मायके में सब की चहेती खूबसूरत सी छवि का सजना - संवरना भी उन्हें पसंद नहीं... अपने आपको भूल कर  पति के साँचे में ढलने के प्रयास में चंचल निर्झर से स्वभाव वाली छवि संगमरमरी प्रतिमा ही तो लग रही थी । अचानक गुंजन के रूप में अतीत को सामने देख वह अपने पर से नियंत्रण खो बैठी और व्यथा आँखों से बह निकली ।
मोहित और अनन्या के वापस आ जाने से दोनोंं की बातों
का सिलसिला वहीं थम गया और बातों का केन्द्र बिन्दु बच्चे
बन गए । अनन्या प्यारी सी बच्ची थी जो सेवन्थ स्टैंडर्ड में पढ़ रही थी । अपने घर के वातावरण के अनुसार बच्ची भी गंभीर स्वभाव की थी । सांझ होने से पहले फिर से मिलने का वादा ले और खुद का ख्याल रखने की हिदायत दे वह मोहित के साथ घर लौट आई ।
रात में सोने से पहले बच्चे ने होमवर्क पूरा किया कि नहीं  , यह जानने के लिए वह मोहित का बैग चेक कर रही थी तभी मोहित ने आज जो कुछ नया देखा और सीखा उसके लिए जिज्ञासु स्वभाव के अनुरूप प्रश्न पूछा  -- मम्मी मूल अधिकार -- समानता ... स्वतंत्रता .. और...और…,अनन्या दीदी पढ़ रही थी बुक में..बताओ ना क्या... और क्या होता है ? मैं तो भूल भी गया..,.गुंजन सोच रही थी --- "अधिकारों - कर्तव्यों की शिक्षा की पौध छोटी कक्षाओं से आरम्भ होकर 
 शिक्षा के उच्चतम स्तर तक पहुँचती हुई  वटवृक्ष सी बनती है…. मगर किताबों के पन्नों से व्यवहारिकता के धरातल पर उन्हें पाने के लिए कितने सागर..पर्वत और मरूस्थल
लांघने पड़ते हैं । महिलाओं के लिए नंगे पैरों का यह सफ़र कठिन ही नहीं दुसाध्य भी है । कितनी हैं ऐसी जो यह सफ़र तय कर लेती हैं और कितनी ही बीच राह ...हौसला छोड़
देती हैं ।" 
कंधे को हिलाता मोहित अपनी माँ की तंद्रा भंग करने की कोशिश कर रहा था ।

★★★★★

बुधवार, 11 मार्च 2020

"हाइकु"

हिमानी पथ~
सैनिकों की टुकड़ी
कतारबद्ध ।

ऊषा लालिमा~
ब्रह्मपुत्र में जाल
डालता मांझी ।

कानन पथ~
अहेरी के कंधे पे
अन्न व जाल ।

गोधूलि बेला~
निज नीड़ लौटता 
गौरेया जोड़ा

शुभ्र गगन ~
परवाजे भरता
श्वेत कपोत ।

सागर तट~
बचपन की यादें
सीप में मोती  ।

श्रावण मास~
निशिथ में गूंजता
दादुर स्वर ।

★★★★★

शुक्रवार, 6 मार्च 2020

"घर-आंगन"

मेरे घर का आंगन ,भूरी सैकत वाला ।
वर्षा की बूँदों संग ,सौंधी खुशबू वाला ।।

गीली मिट्टी के ढेरी ,चल  घर बनाते हैं ।         
ये तेरी है वो मेरी ,कुछ फूल उगाते हैं ।।

आंगन का हिस्सा मेरा ,वो बगिया वाला तेरा ।
आंगन में नीम लगेगा ,डाली पर झूला होगा ।।

सर्दी वाले मौसम में ,हम सब धूप सेकते थे ।
सारे मिल के आपस में ,बस कुछ भी खेलते थे ।।

तारों की छांव तले ,जाने कितने किस्से ।
भूली वो सब बातें ,बचपन की सौगातें ।।

बहुमंजिल बनी इमारत ,बोनसई सी दिखती है ।।
घर-आंगन वाली बात ,अब सपने सी लगती हैं ।

★★★★★







मंगलवार, 3 मार्च 2020

"व्यथा"


मैं अपने बहुत करीब हूँ ,
या फिर खुद से दूर हूँ ।
व्यथित हूँ मन से बहुत ,
चुप रहने को मजबूर हूँ ।।

अर्पित कर दिया तुझे ,
स्व भी स्वाभिमान भी ।
रिक्त मन के कोष मेरे ,
मांगे उर्जित प्राण भी ।।

शब्द भी नाराज मुझसे ,
पहले सी रवानी मांगें ।
निश्छल सरल हृदय से ,
नेह पगी निशानी मांगें ।।

तिमिर में डूबे जहां को ,
रोशनी की आस है ।
स्वाति नक्षत्र  बूंद की ज्यों ,
चातक को प्यास है ।।

★★★★★