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सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

"गंगा"

स्कूल से आते समय एक दिन गली में दो  गोल -मटोल  अपरिचित बच्चों को खेलते देख कर सोचा कि पड़ोस में किसी की रिश्तेदारी में‎ कोई परिवार आया होगा जिनके 
 साथ ये बच्चे हैं । बच्चे सभी मासूम होते हैं मगर उन के
 चेहरे पर एक अलग सी आत्मीयता भरी मुस्कान थी  जो बरबस मन को छू गई । 
       रात को खाना खाने के बाद छत पर टहलने गई तो गली में सामने वाली खण्डहरनुमा हवेली के आंगन में रोशनी दिखाई दी ।  बरसों पुरानी हवेलियाँ कस्बों में देखभाल के अभाव में खण्डहरों में तब्दील हो जाती हैं जिनको कभी इनके मालिकों ने बड़े अरमानों से बनवाया होगा । दूर-दराज क्षेत्रों से व्यापार में धन कमा कर  यहाँ के निवासियों ने अपने लोगों के बीच रुतबे  का प्रदर्शन करने का शायद यही तरीका अपनाया हुआ था क्योंकि रहने के लिए तो वे इनमें कभी कभार और न के बराबर ही आते थे । आजीविका और व्यवसायिक निर्भरता के कारण  इन हवेलियों के वंशजों का झुकाव भी शहरों की ओर ही रहा । धीरे-धीरे वे घर लौटने का रास्ता शायद भूलते चले गए। परिणाम स्वरूप समय के साथ ये शानदार हवेलियाँ रख - रखाव के अभाव में वीरान और खंडहर होती गई । कभी-कभार ही कोई भटका
मुसाफिर मोह में बँध कर लौटता है तो हैरानी ही 
होती है। 
      कुछ देर घूमने के बाद छत से नीचे‎ उतर कर मैंने अम्मा‎ से पूछा -- "अम्मा सामने की हवेली में कौन आया है ।" 'गंगा आई है अपने दो बच्चों के साथ । पति नशा करता है  कभी काम करता है कभी नही करता इसलिए ये  किसी के यहाँ खाना बनाने काम करती है उन्हीं लोगों ने हवेली का एक कमरा खुलवा दिया है ।'  एक दिन गली में दिखी वह  अपने बच्चों‎ के साथ । बच्चों के जैसी ही उजली वैसी ही निश्च्छल और जीवन से भरपूर आत्मीय मुस्कुराहट   के साथ । उसकी और  उसके बच्चों की मुस्कुराहट  को मैं नज़रअन्दाज नही कर पाई और पूछ बैठी -“ गंगा आप कहाँ से ---  वाक्य पूरा होने से पहले ही खनकती आवाज़‎ कानों में गूंजी -- दीदी पहाड़ से ।” घर में घुसते स्मित मुस्कान के साथ मैं सोच रही थी - गंगा  पहाड़ से …., वास्तव में गंगा हिमालय‎ में अपने उद्गम गंगोत्री से निकल कर निचले मैदानी भूभागों में उतरती है  और यह गंगा भी उत्तरांचल से है अभावों में भी हँसती मुस्कुराती गंगा शादी-ब्याह के दिनों में अधिक व्यस्त हो जाती और उसके मासूम और समझदार बच्चे हवेली के चबूतरे पर बैठे माँ की राह तकते। कई बार वहाँ‎ से निकलते उनकी प्रतीक्षा ‎रत उदास‎ आँखें‎ देखती तो कभी माँ के साथ खिलखिलाने की खनक सुनती । रोज के आने-जाने के रास्ते में वह हवेली होने के कारण  मेरा उनसे एक अलग सा रिश्ता हो गया था मुस्कुराहट भरा  । गंगा को देख  कर कई बार सोचती  कि निश्च्छलता और सौम्यता की  यह अनुकृति कहाँ आ पहुँची पहाड़ों का सरल जीवन छोड़ कर । पति के साथ छोटे से प्रकृति के गोद में बसे गाँव को छोड़ते हुए कितने सपने होंगे इसकी आँखों में । और कल्पना कर बैठती गंगोत्री से निकल कर कल कल करती इठलाती गुनगुनाती  हरिद्वार से मैदानी इलाकों में प्रवेश करती गंगा नदी की...., जो वहाँ से निचले भूभागों में आ कर अपना आरम्भिक स्वरूप खो देती है ।
       एक दिन बच्चों की अंगुली थामे  गंगा मेरे सामने आ खड़ी हुई- "दीदी मैं जा रही हूँ‎।”  कहाँ ?  मैंने पूछा‎ ।
 “पहाड़ पर दीदी ! वहाँ अपने लोग हैं बच्चों का ख्याल रखने को । मजदूरी ही करनी है ना .. तो‎ वहीं कर लूंगी इनको पढ़ाना लिखाना जरूरी  है ना….,मोटा खा-पहन कर काम चला लेंगे । यहाँ सब कुछ महंगा …,  दम घुटता है यहाँ ।”  मैंने बोझिल मन से विदा दी उसे । एक अनजाना सा मोह का धागा उससे और उसके बच्चों से जो जुड़ गया था मेरा । तभी अन्दर से अम्मा‎ की आवाज आई- “कौन है?" 
 --  "गंगा है अम्मा‎ , विदा लेने आई थी ।”  
 -- कहाँ जा रही है ? बाहर निकलते  हुए उन्होंने पूछा।
-- वापस पहाड़ पर अम्मा‎ ! 
--क्यों ….?
--यहाँ उसका अस्तित्व खो रहा है अम्मा । मैंने उदास सा जवाब दिया ।
                            ***

26 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 10 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. "सांध्य मुखरित मौन" में मेरे सृजन को साझा करने के लिए सादर आभार यशोदा जी ।

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  2. "गंगा है अम्मा‎ , विदा लेने आई थी ।”
    -- कहाँ जा रही है ? बाहर निकलते हुए उन्होंने पूछा।
    -- वापस पहाड़ पर अम्मा‎ !
    --क्यों ….?
    --यहाँ उसका अस्तित्व खो रहा है अम्मा । मैंने उदास सा जवाब दिया ।
    एक छोटी सी कथा के माध्यम से आपने कितनी गहरी बात कह दी ,पहाड़ों से उतर कर गंगा मलिन ही तो हो जाती हैं ,प्रशंसा में शब्द नहीं हैं मेरे पास , सादर नमस्कार आपको और आपकी लेखनी को

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    1. रचना का मर्म स्पष्ट करती आपकी समीक्षा ने सृजन का मान बढ़ाया कामिनी जी । बात आपके हृदय तक पहुंची मेरा लेखन सफल हुआ । सस्नेह आभार आपका ।

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  3. सुंदर लघु-कथा। गंगा की मनोस्थिति मैं समझ सकता हूँ क्योकि खुद पहाड़ों से आता हूँ इसलिए गाहे बगाहे दौड़कर पहाड़ों की गोद मे चला जाता हूँ। आपकी लघु-कथा मन को छू लेती है। आभार।

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    1. हार्दिक आभार विकास जी लेखन सफल हुआ आपकी प्रतिक्रिया पा कर । पहाड़ों का जीवन सरल सादा और निश्छल होता है जो मन के करीब लगता है ।

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  4. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(11-02-2020 ) को " "प्रेमदिवस नजदीक" "(चर्चा अंक - 3608) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ...
    कामिनी सिन्हा

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    1. चर्चा मंच की चर्चा में मेरे सृजन को सम्मिलित के लिए हृदयतल से आभार कामिनी जी ।

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  5. अच्छा हुआ गंगा वापस लौट गयी..

    अब हमारी पतित पावनी गंगा भी वापस स्वर्ग को प्रस्थान कर जाए तो यह उसके लिए उत्तम है क्योंकि उसे स्वच्छ करने के नाम पर अरबों रुपए भ्रष्टाचार के भेंट चढ़ गए हैंं।

    इस गंगा की आत्मा की उसी तरह से तड़प रही होगी जैसे उस गंगा की जो अपना पहाड़ी इलाका छोड़ महानगर आ गई थी।
    बहुत सुंदर भावना पूर्ण रचना है मीना दी आपकी

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    1. रचना पर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार शशि भाई ।

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  6. उम्दा रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ।

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    1. उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार गुरमिन्दर सिंह जी ।

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  7. इस लघुकथा को पढ़कर बिल्कुल वही बात मेरे मन में भी आई जो शशिभाई ने कही। कहानी में हल्के फुल्के ढंग से बहुत गंभीर संदेश दे दिया आपने !!!

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    1. आपकी और शशिभाई की सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से रचना का मान बढ़ा ...हृदयतल से आभार मीना जी !

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  8. नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 11 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. "पाँच लिंकों का आनन्द" में मेरे सृजन को साझा करने के लिए सहृदय आभार रविन्द्र सिंह जी ।

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  9. दो पैसे की चाह में आ ही जाती हैं कोई गंगा पहाड़ों से मैदानों तक ....पर वापस जाने का फैसला लेना भी हर गंगा में नहीं होता....आजकल गंगा की तरह कितनी ही गंगाएं मैदानों में आकर अपना स्ववरूप खो चुकी हैं...आपकी गंगा बहुत ही बेहतर है
    बहुत सुन्दर संदेश देती सार्थक प्रस्तुति।

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    1. लेखन का मर्म स्पष्ट करती आपकी सुन्दर सार्थक समीक्षा से लघुकथा को सार्थकता मिली सुधा जी । बहुत बहुत आभार आपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए ।

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  10. वाह!मीना जी ,खूबसूरत संदेश देती हुई लाजवाब रचना ।

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    1. सराहनीय अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार शुभा जी ।

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  11. अंतर मन को छू गई ये लघुकथा मीना जी ।
    एक गंगा के माध्यम से दूसरी गंगा का दर्द लिखा है आपने, और इतना सहज और मन तक उतरता लेखन है मानों स्वयं गंगा द्रवित हो बह गयी हो।
    इस कथा की जितनी प्रशंसा करूं कम ही होगी।
    कैसे पहाड़ी क्षेत्र,या अपनी जड़ों से दूर आ जाते हैं लोग पर जड़ नहीं जमा पाते ,कुछ लौट जाते हैं 'गंगा ' की तरह कुछ बस 'गंगा' की तरह अपने अस्तित्व बचाने की अथक लड़ाई लड़ते रहते हैं ।
    बहुत बहुत सुंदर सृजन।

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    1. अभिभूत हूँ कुसुम जी आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया पा कर ।
      लघुकथा का मर्म स्पष्ट करती समीक्षा के लिए हृदय से आभार ।

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  12. दिल को व्यथित कर देने वाली उम्दा रचना

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    1. लेखन सार्थक हुआ आपकी दुर्लभ प्रतिक्रिया से... हृदयतल से आभार सर !

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  13. बहुत ही मार्मिक कथा प्रिय मीना जी | गंगा का पहाड़ की ओर लौटना अपनी जड़ों से प्रेम को दर्शाता है , अन्यथा कोई एक बार जड़ों से कटकर कहाँ उनसे जुड़ पाता है | कथित संभ्रांत वर्ग अपने वारिसों को अपनी विरासत सँभालने की शिक्षा ही कहाँ दे पाता है ? अगर वे संस्कारों का मूल्य समझते तो सूनी पडी हवेलियाँ और घर आज आबाद होते | जिसने अपनी भावी संतति को विरासत की महता नहीं समझाई वे विरासत को जमोंदोज़ कर भीड़ का हिस्सा बनकर रह गये | बड़ी सरल और सहज शैली में कहानी में भावों का प्रवाह बहुत लाजवाब है | सस्नेह

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    1. आपको कहानी अच्छी लगी...लेखनी सफल हुई । आपकी सुन्दर सारगर्भित प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली । हृदयतल से हार्दिक आभार प्रिय रेणु बहन ! सस्नेह...

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"