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सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

"लहरें"

पूर्णिमा की रात
सागर का क्रोध
 पूरे चरम पर था
और...
लहरों की चंचलता
सीमाओं से बाहर...
वह बाँधना चाहता था
लहरों को … 
मगर अनियन्त्रित लहरें
कहाँ और कब.. 
किसी की सुनती हैं
अपनी ही मौज में रहती हैं 
जब होना चाहती हैं  निर्बन्ध
 तो करती हुई वर्जनाओं को
दर किनार….
बस आ ही जाती है 
इस पार ...।

★★★★★

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

"लकीरें"

मत बनाओ
लकीरों के दायरे
जानते तो हो…
लीक पर चलना
हर किसी को 
कब और कहाँ आता है
सीधी लकीरें भी
कहाँ बन पाती हैं
 इन्सान से…
लकीर खींचने का प्रयास
तो सदा सीधी का होता है
मगर रुप अक्सर 
वर्तुल ही बनता है
स्वतंत्रता कई बार
परतंत्रता बन जाती है
खुद की खातिर …
समझाइश के लिए
शब्दों का जाल भी
लगभग लकीरों सरीखा
ही लगता है और जाल…
उनमें कैद व्यक्तित्व
निखरते कब हैं ?
बस जड़ हो जाते है

★★★★★

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

"हाइकु"

सरसों फूल
तितली पंख पर
पराग कण

शीत पूर्वाह्न
पुष्प मकरंद पे
भ्रमर दल

ऊषा लालिमा
अधखिला कमल 
तड़ाग मध्य

चाँदनी रात 
धरा पर बिखरे 
हरसिंगार 

ऊषा लालिमा
वैद्य की पोटली में 
ढाक प्रसून


★★★★★

सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

"गंगा"

स्कूल से आते समय एक दिन गली में दो  गोल -मटोल  अपरिचित बच्चों को खेलते देख कर सोचा कि पड़ोस में किसी की रिश्तेदारी में‎ कोई परिवार आया होगा जिनके 
 साथ ये बच्चे हैं । बच्चे सभी मासूम होते हैं मगर उन के
 चेहरे पर एक अलग सी आत्मीयता भरी मुस्कान थी  जो बरबस मन को छू गई । 
       रात को खाना खाने के बाद छत पर टहलने गई तो गली में सामने वाली खण्डहरनुमा हवेली के आंगन में रोशनी दिखाई दी ।  बरसों पुरानी हवेलियाँ कस्बों में देखभाल के अभाव में खण्डहरों में तब्दील हो जाती हैं जिनको कभी इनके मालिकों ने बड़े अरमानों से बनवाया होगा । दूर-दराज क्षेत्रों से व्यापार में धन कमा कर  यहाँ के निवासियों ने अपने लोगों के बीच रुतबे  का प्रदर्शन करने का शायद यही तरीका अपनाया हुआ था क्योंकि रहने के लिए तो वे इनमें कभी कभार और न के बराबर ही आते थे । आजीविका और व्यवसायिक निर्भरता के कारण  इन हवेलियों के वंशजों का झुकाव भी शहरों की ओर ही रहा । धीरे-धीरे वे घर लौटने का रास्ता शायद भूलते चले गए। परिणाम स्वरूप समय के साथ ये शानदार हवेलियाँ रख - रखाव के अभाव में वीरान और खंडहर होती गई । कभी-कभार ही कोई भटका
मुसाफिर मोह में बँध कर लौटता है तो हैरानी ही 
होती है। 
      कुछ देर घूमने के बाद छत से नीचे‎ उतर कर मैंने अम्मा‎ से पूछा -- "अम्मा सामने की हवेली में कौन आया है ।" 'गंगा आई है अपने दो बच्चों के साथ । पति नशा करता है  कभी काम करता है कभी नही करता इसलिए ये  किसी के यहाँ खाना बनाने काम करती है उन्हीं लोगों ने हवेली का एक कमरा खुलवा दिया है ।'  एक दिन गली में दिखी वह  अपने बच्चों‎ के साथ । बच्चों के जैसी ही उजली वैसी ही निश्च्छल और जीवन से भरपूर आत्मीय मुस्कुराहट   के साथ । उसकी और  उसके बच्चों की मुस्कुराहट  को मैं नज़रअन्दाज नही कर पाई और पूछ बैठी -“ गंगा आप कहाँ से ---  वाक्य पूरा होने से पहले ही खनकती आवाज़‎ कानों में गूंजी -- दीदी पहाड़ से ।” घर में घुसते स्मित मुस्कान के साथ मैं सोच रही थी - गंगा  पहाड़ से …., वास्तव में गंगा हिमालय‎ में अपने उद्गम गंगोत्री से निकल कर निचले मैदानी भूभागों में उतरती है  और यह गंगा भी उत्तरांचल से है अभावों में भी हँसती मुस्कुराती गंगा शादी-ब्याह के दिनों में अधिक व्यस्त हो जाती और उसके मासूम और समझदार बच्चे हवेली के चबूतरे पर बैठे माँ की राह तकते। कई बार वहाँ‎ से निकलते उनकी प्रतीक्षा ‎रत उदास‎ आँखें‎ देखती तो कभी माँ के साथ खिलखिलाने की खनक सुनती । रोज के आने-जाने के रास्ते में वह हवेली होने के कारण  मेरा उनसे एक अलग सा रिश्ता हो गया था मुस्कुराहट भरा  । गंगा को देख  कर कई बार सोचती  कि निश्च्छलता और सौम्यता की  यह अनुकृति कहाँ आ पहुँची पहाड़ों का सरल जीवन छोड़ कर । पति के साथ छोटे से प्रकृति के गोद में बसे गाँव को छोड़ते हुए कितने सपने होंगे इसकी आँखों में । और कल्पना कर बैठती गंगोत्री से निकल कर कल कल करती इठलाती गुनगुनाती  हरिद्वार से मैदानी इलाकों में प्रवेश करती गंगा नदी की...., जो वहाँ से निचले भूभागों में आ कर अपना आरम्भिक स्वरूप खो देती है ।
       एक दिन बच्चों की अंगुली थामे  गंगा मेरे सामने आ खड़ी हुई- "दीदी मैं जा रही हूँ‎।”  कहाँ ?  मैंने पूछा‎ ।
 “पहाड़ पर दीदी ! वहाँ अपने लोग हैं बच्चों का ख्याल रखने को । मजदूरी ही करनी है ना .. तो‎ वहीं कर लूंगी इनको पढ़ाना लिखाना जरूरी  है ना….,मोटा खा-पहन कर काम चला लेंगे । यहाँ सब कुछ महंगा …,  दम घुटता है यहाँ ।”  मैंने बोझिल मन से विदा दी उसे । एक अनजाना सा मोह का धागा उससे और उसके बच्चों से जो जुड़ गया था मेरा । तभी अन्दर से अम्मा‎ की आवाज आई- “कौन है?" 
 --  "गंगा है अम्मा‎ , विदा लेने आई थी ।”  
 -- कहाँ जा रही है ? बाहर निकलते  हुए उन्होंने पूछा।
-- वापस पहाड़ पर अम्मा‎ ! 
--क्यों ….?
--यहाँ उसका अस्तित्व खो रहा है अम्मा । मैंने उदास सा जवाब दिया ।
                            ***

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

"सायली छन्द"


कुहूक
कोयल की
गूंजी प्रभाती सी
सूर्योदय के
संग...

नेह
डोर बंधन
सांसों में घुल
हिय बीच
बसा..

अनचीन्हे 
संदली ख्वाब
सीप में मोती
जैसे पनपते
प्रतिपल...

अचल
पाषाण फोड़
वह बह निकली
करने मैदान
उर्वर….

★★★

शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

"संदूक"

बहुत दिनों के बाद आज समय मिला है ..आलमारी
ठीक करने का । कितनी ही अनर्गल चीजें रख
देती हूँ इसमें और फिर साफ करते करते सलीके से  ना
जाने कितना समय लग जाता है । कितनी स्मृतियाँ
जुड़ी होती है हर चीज के साथ ..और मन है कि डूबता
चला जाता है उन गलियारों में और जब काम
पूरा होता है तो सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो
जाते हैं । ऐसे समय में  अक्सर बचपन का
घर और माँ का करीने से जँचा कमरा
घूम जाता है नज़रों के आगे । इस आकर्षण का कारण
माँ के सलीकेदार होने की प्रंशसा का होना मुख्य है जो घर
के सदस्यों के अतिरिक्त रिश्तेदारों से भी सुनने को
मिलती थी । माँ के कमरे में दीवारों में बनी
आलमारियों में एक आलमारी पर सदा ताला
लगा देखती थी हमेशा और उसकी चाबी का
गुच्छा माँ की साड़ी के छोर से बंधा हुआ…,
अगर पल्लू के छोर पर नहीं तो
पक्का रसोईघर के सामान के बीच रखा ,जिसे वे
प्रायः भूल जाया करती थीं काम करते हुए । और
उसे ढूंढने का श्रेय मेरे हिस्से में सबसे अधिक आता
था । माँ जब भी आलमारी खोलती सूटकेसों के साथ
करीने से रखी पुरानी बेडशीट पर लोहे की प्रिटेंड
संदूक को जरूर अपलक निहारती दिखती और मैं उनके
गले में हाथ डाल कर झूलती हुई पूछती --'तुम्हारी
तिजोरी है माँ ?'  स्नेह में डूबा लरजती आवाज में
उनका जवाब होता -- हाँ.. तेरी नानी की भेंट है यह ।
और मैं उलझा देती उन्हें बहुत सारे प्रश्नों में..जिनकी
उलझन से बचने के लिए वे सदा ही मुझे-- जा
पढ़ाई कर.. कह कर चुप करा देती ।
  अपने घर में जब भी फुर्सत से आलमारियां ठीक
करती हूँ ...माँ की आलमारी और प्रिटेंड सा
संदूक याद आ जाता है ।
माँ का संदूक को सावधानी से रखना , करीने से
खोलना ,  कपडों की तहों में चिट्ठियाँ रखना ...कुछ
ननिहाल से मिली भेंटों को अपलक तांकना ; बालमन
को तो समझ नहीं आता था पर अब समझ आता
है ।  संदूक का छोर पकड़ती माँ मानो हाथ
पकड़ती थी अपनी माँ का .., उसमें रखे सामान को
सहेजती माँ का बालमन भी अपने बचपन के
गलियारों में विचरण करता था । उनके एकान्तिक
अहसासों की एकाग्रता को भंग करती कभी मैं  तो
कभी भाई -बहन उनको उनके बचपन से बड़प्पन के
संसार में ले आया करते थे--- "तुम 'लाइट हाउस' हो
हमारा … कहाँ जा रही हो माँ?" आज माँ
नहीं हैं.. मैं आलमारी ठीक करते करते मन से
माँ की तरह भटक रही हूँ यादों की उन विथियों
में … जहाँ माँ का संदूक  है ..और अब है भी या
नहीं पता नही...जिसमें ना जाने कितने अनकहे
अहसास बंद थे माँ के करीने से सजाये हुए .. उन्हीं
को याद करती मैं वापस लौट आती हूँ अपनी
आलमारी में बिखरे यादों के संदूक के पास ।

 ★★★★★