वे …,
चले आ रहे हैं
सदियों से…
आज इसके साथ
तो कल उसके
आँखें बन्द करने से
जो हैं वे
बदलते कहाँ हैं ?
चल रहें हैं
जल , थल ,अग्नि ,
वायु और आकाश जैसे
पंचभूत बन
प्राणों के साथ …,
जब होते हैं
मन मुताबिक तो
देते हैं …,
असीम आनन्द
तो कभी चाबुक से बरस
दुख भी देते हैं
सुनो…,
हम दोनों मे से
किसे मारना चाहते थे ?
किसे मारना चाहते थे ?
मुझे…,या फिर
उन्हें …,
★★★
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार लोकेश जी ।
हटाएं"आँखें बन्द करने से
जवाब देंहटाएंजो हैं वे
बदलते कहाँ हैं"
हार्दिक आभार ।
हटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति मीना जी ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार कामिनी जी । सस्नेहाभिवादन 🙏
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(१५ -१२ -२०१९ ) को "जलने लगे अलाव "(चर्चा अंक-३५५०) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
चर्चा मंच पर रचना को मान देने के लिए असीम आभार अनीता जी ।
हटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार अमित जी .
जवाब देंहटाएंजन्म के साथ उत्पत्ति है विचार की ... एक को मारे बिना दुसरे का संहार नहीं हो सकता ... हाँ कई बार हम खुद मार देते हैं विचार ...
जवाब देंहटाएंगहरी सोच ...
सारगर्भित अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार नासवा जी ।
हटाएंThanks For Sharing Useful Article
जवाब देंहटाएंI am Reading Daily Your New Article
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