जिन्दगी की पहेली
रेशमी लच्छियों सी
उलझी-उलझी मगर
अहसासों में मखमली
पहेली तो पहेली है
जितना प्रयास करो
समझने और सुलझाने का
उलझती ही चली जाती है
उसके बाद इन्सान न तो
गौतम बुद्ध बन पाता है
और न आम इन्सान ही रह पाता है
और न आम इन्सान ही रह पाता है
गौतम बुद्ध….
वो तो सिद्धार्थ थे
राजा शुद्धोधन के पुत्र
रोज की रोटी की फिक्र से दूर…
वक्त ही वक्त था
चिन्तन और मनन की खातिर
आम आदमी के पास
चिन्तन-मनन की खातिर
वक्त कहाँ होता है ??
भागते-दौड़ते….
यूं ही कट जाती है जिन्दगी
गत और आगत की जुगत में
और हाँ… .,
वक्त जब हाथ में आता है
तो वक्त और जिन्दगी..
दोनों का छोर
इन्सान के हाथों से
ना चाहते हुए भी
मुठ्ठी से बन्द बालू रेत सा
फिसल सा जाता है
★★★★★
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (08-09-2019) को " महत्व प्रयास का भी है" (चर्चा अंक- 3452) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
चर्चा मंच में रचना को स्थान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंसुंदर चिंतन देता सृजन मीना जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा है आपने एक आम व्यक्ति को चिंतन और मनन का भी समय कहां होता है, शायद इसी लिए सांसारिक प्रपंचों से दूर रहने के लिए चिंतक साधु या फक्कड़ बन अपना आत्मावलोकन करता है, सिद्धार्थ भी घर छोड़ गये थे सच खोजने मोक्ष खोजने।
आपकी उपस्थिति रचना को सार्थकता और मुझे उत्साहवर्धन की अनुभूति देती है । बहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
हटाएंवाहः
जवाब देंहटाएंगज़ब का लेखन
बहुत बहुत आभार दीदी ! आपकी प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ।
हटाएंMeena JI
जवाब देंहटाएंHmmmm...lmbi kahaani pdhne ke liye wat nikaalna pdhtaa he...wo bhi aajkal ki waysat zindgi me se......
aapne ...mujhe is kaabil smjhaaa ...bahut bahut aabhaar
tah e dil se shukriyaa ..ani zindgi ke kuch mehtwapooran lmhe mere liye nikaalne ke liye
stay blessed
Mujhe aapka likha pasand hai Joya ji.. story bhi aap bahut khubsurat likhati hain.
हटाएंजितना प्रयास करो
जवाब देंहटाएंसमझने और सुलझाने का
उलझती ही चली जाती है
hmmmm..insaanon ke bas ki baat nhi ise suljhaa pana...insaan sirf jii skte hain is paheli ko....ulajh skte hain..suljh nhi,,yahi vidhaa he yahii reeti
bdhaayi ..rchnaa ke liye
Irani Sundar pratikriya ke liye dil se
हटाएंaseem aabhaar Joya ji .
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
९ सितंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
'पाँच लिंकों का आनन्द' में रचना साझा करने के लिए हृदयी आभार । सस्नेह....,
हटाएंये भी ज़िंदगी और बुद्ध को सोचने का एक आयाम है !
जवाब देंहटाएंआपकी सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार नीरज जी ।
हटाएंआखरी लाइन्स ने दिल जीत लिया , शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंब्लॉग पंच
Enoxo multimedia
सराहना भरे शब्दों के लिए आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंपहेली तो पहेली है
जवाब देंहटाएंजितना प्रयास करो
समझने और सुलझाने का
उलझती ही चली जाती है
सच में जिंदगी है तो बिलकुल चक्रव्यूह जैसे चुनौती पर हर एक संघर्ष करता है कुछ पाने को, जो निराश हो कर इसे तोड़ना नहीं चाहता है
रचना को गतिशीलता प्रदान करती ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए असीम आभार संजय जी ।
हटाएंबहुत सुंदर और सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए सस्नेह आभार सुजाता जी ।
हटाएंगौतम बुद्ध….
जवाब देंहटाएंवो तो सिद्धार्थ थे
राजा शुद्धोधन के पुत्र
रोज की रोटी की फिक्र से दूर…
वक्त ही वक्त था
चिन्तन और मनन की खातिर
सही कहा मीना दी कि चिंतन और मनन कार्ने के लिए वक्त चाहिए...आम इंसान के पास कहां हैं वक्त?
उत्साहवर्धन करती सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए स्नेहिल आभार ज्योति जी ।
हटाएंये सच है आज की मारा मारी में बुद्ध बनना आसान नहीं ... पर मन से अगर वो उसके करीब हो जाये तो अपना जीवन तो संवर ही जाता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरी सोच से उपजी रचना ...
सारगर्भित सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार नासवा जी ।
हटाएंआम आदमी के पास
जवाब देंहटाएंचिन्तन-मनन की खातिर
वक्त कहाँ होता है ??
भागते-दौड़ते….
यूं ही कट जाती है जिन्दगी
गत और आगत की जुगत में
बहुत ही सटीक , सार्थक, एवं गहन चिन्तन से उपजी लाजवाब रचना....
वाह!!!
सराहना भरी सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हृदयी आभार सुधा जी ।
हटाएंबहुत बेहतरीन चिंतन से भरी रचना पिय मीना जी | चिंतन और मनन को विस्तार मिले तो बुद्ध बनना स्वाभाविक हो सकता है पर ये आसान कहाँ होता है ? सदियों में कोई एक बुद्ध अस्तित्व में आ पाता है | आम आदमी के पास इतना समय कहाँ ? हाँ रेत ही है ये समय जो पहेली बनकर हाथो से पल पल, फिसल रहा है | सस्नेह --
जवाब देंहटाएंआपकी रचना पर व्याख्यायित प्रतिक्रिया से रचना का मर्म द्विगुणित हो बहन । असीम स्नेह सहित हार्दिक आभार ।
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