के बाद भी
अपने आप से
बेजारी है कि
जाने का नाम
ही नही लेती..
कभी ये नही तो
कभी वो नही
ऐसा है तो
ऐसा क्यों है
यदि नही है तो
क्यों नहीं है..
ढेर सारे
किन्तु-परन्तु
और जवाब...
उलझनों का ढेर
लम्बी खामोशी
उसके बाद
कुछ भी न कर
पाने की लाचारी
अपने आप में
रिक्तता भरती है
कभी कभी
अपने आप पर
भरोसा करने की
आदत किसी सैलाब
के आने पर
टूटी दीवार सी
ढहती है
और फिर...
खुद को
खुद ही
समझाता है
..मन..
गुलाब की सी
बगीची है
..जिन्दगी..
महक है…
खूबसूरती है..
और हैं ..
असंख्य काँटें
हर इन्सान
अपने आप में
पूरा माली
कहाँ होता है..
पाने की कोशिश
करता है पूरा
... गुलाब..
और...
उलझ काँटों में
बस अपना
चैन-सुकून ही
खोता है
★★★★★
सकारात्मक और नकारात्मक ख्याल तो चलते ही रहते है मन का अंतर्द्वंद कितने खूबसूरत तरीके से बयां किया है...अपने अनुभवों की जब समीक्षा हो तो अक्सर लगता है कि फिर से वही बचपन आये जहाँ कितने पेड़ खड़े होते हैं छाया देने के लिए. पेड़ तो शायद फिर भी स्थावर रह जाता है पर हमारे जीवन की गति अलगाव कर देता है उन पेड़ों से. पर .....वही ज़िन्दगी को चलना है. उन्ही सुखद स्मृतियों की कानों पर थपकी लेकर सो जाना होता है. भाव-प्लावित अति सुन्दर कृति :(
जवाब देंहटाएंसारगर्भित और सृजन को प्रवाह प्रदान करती आपकी त्वरित प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली संजय जी ! आपकी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया सदैव लेखनी को उत्साह देती है । हृदय से हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंप्रतीकात्मक बिम्बों से सजी रचना, गुलाब की कोमलता और काँटों की चुभन के साथ ... दोनों के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष हैं .. और वह भी अलग-अलग दृष्टिकोण से अलग-अलग ही होता है ...मेरी दृष्टिकोण में गुलाब सुखद है पर क्षणभंगुर भी है और काँटा कष्ट का प्रतिक है पर टिकाऊ है ..
जवाब देंहटाएंस्वागत सुबोध जी "मंथन" पर आपकी प्रथम प्रतिक्रिया का.. जिन्दगी क्षणभंगुर है और सत्कर्म का मार्ग कष्टकर लेकिन नश्वरता से दूर । आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को मान मिला । बहुत बहुत आभार ।
हटाएंकहीं गहरे अवसाद से जूझता मन , बहुत शानदार अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंजीवन क्या है ?
एक पोध ही तो है गुलाब की
जिसमें सौरभ है और शूल भी
जिसमें निर्माण है बिखराव भी
सदा सुखकर नहीं होता कुछ भी
उतार चढ़ाव की पगडंडी है जीवन भी।
आपकी काव्यात्मक जीवन की व्याख्यायित प्रतिक्रिया ने रचना का मान बढ़ाया कुसुम जी । सस्नेह बहुत बहुत आभार आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है ।
हटाएंपौध
हटाएंअंर्तद्वद्व मानवीय गुण है। जीवन के हर पल मेंं विचारों का मंथन कभी सकारात्मकता और कभी नकारात्मकता लेकर आता है..मन में आस का दीप जलते रहे इसलिए ऊर्जावान सकारत्मकता बनाये रखे..बहुत सुंदर रचना मीना दी।
जवाब देंहटाएंइतनी प्यारी स्नेहिल सुन्दर और सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार श्वेता ! सस्नेह..
हटाएंकभी कभी
जवाब देंहटाएंअपने आप पर
भरोसा करने की
आदत किसी सैलाब
के आने पर
टूटी दीवार सी
ढहती है
बहुत सुन्दर सारगर्भित रचना...
लाजवाब वैचारिकी मंथन।
बहुत बहुत आभारी हूँ सुधाजी आपकी स्नेहमयी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए । सस्नेह आभार ।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/08/2019 की बुलेटिन, "मुद्रा स्फीति के बढ़ते रुझानों - दाल, चावल, दही, और सलाद “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन के आज के अंक में मेरी रचना को साझा करने के लिए हृदय से आभार शिवम् जी ।
हटाएंप्रिय मीना दी अंतरमन में उठा कसमकस कुछ वैचारिक रुप ही प्रदान करता है उसी रुप को आप ने बहुत ही सुन्दर ढंग से निखारा है बेहतरीन सृजन 👌👌
जवाब देंहटाएंसादर
रचना को प्रवाह और सार्थकता देती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार प्रिय अनु ! सस्नेह..
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ओंकार जी ।
हटाएंपाने की कोशिश
जवाब देंहटाएंकरता है पूरा
... गुलाब..
और...
उलझ काँटों में
बस अपना
चैन-सुकून ही
खोता है .. बहुत सुंदर और सार्थक रचना मीना जी
रचना सराहना के लिए सस्नेह आभार अनुराधा जी ।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-08-2019) को "बने ये दुनिया सबसे प्यारी " (चर्चा अंक- 3425) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
"चर्चा मंच" पर रचना को स्थान देने के लिए असीम आभार ।
हटाएंजीवन द्वन्द्वों पर ही टिका है..सुख-दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं..एक जीवन और है जो दो के पार ही मिलता है..जिसमें न फूल हैं न कांटे..केवल एक अखंड निर्वाण...
जवाब देंहटाएंजीवन का सार है आपके अनमोल सन्देश में.. हृदय की असीम गहराईयों से आभार अनीता जी ।
हटाएंज़िन्दगी यही है ... खुद सोचना, खुद अवसाद में जाना फिर खुद ही उभारना ... जीवन में ये सब नहीं हो तो प्रेरणा कहाँ से मिले ... द्वन्द को बाखूबी लिखा है ...
जवाब देंहटाएंगिरना,उठना और संभलना माँ की गोद से उतरते ही सीख जाते हैं .. बस भूल जाते हैं स्वभावतः । बहुत बहुत आभार नासवा जी आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली ।
हटाएंufffffffff....ye kyaa likhaa aapne.....hmmmm
जवाब देंहटाएंyun lgaa jin shabdon ko main bhasm kar unki raakh khud me dafan kiye hun..aapne unhe vastr pehnaa diye aur mere saamne rkh die
लम्बी खामोशी
उसके बाद
कुछ भी न कर
पाने की लाचारी
अपने आप में
रिक्तता भरती है
sakshm hkar bhi...kuch naa kr paane ki laachaari............ye kasak smjhnaa fir bhi aasaan he..par pridin iske saath jinaa...hehre pr makhote lgaaye .hmmm
Meena ji...
dhanywad ...is rchnaa ke liye
Aapki saraahana Bhari baaten...man Ko chhu gayi Joya ji . Hriday ki aseem gaharaaiyon se dhanywad .
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