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सोचों मेंं डूबा
देख सृष्टि के रंग
माटी का लाल
कहीं बरस गया
तो अतिवृष्टि
कहीं भूली डगर
तो अनावृष्टि
पृथ्वी की विषमता
मन की पीड़ा
तोड़ कूल किनारे
बन्द दृगों से
बन के अश्रु बूँद
बह निकली
आहत होता मन
तल्खी पा कर
घनीभूत सी पीड़ा
हिय में आई
अकुलाहट छाई
व्यर्थ सा लागे
दुविधा में उलझा
खुशियों का सपना
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नमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति आज सायं 5:30 बजे प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक 'मुखरित मौन' https://mannkepaankhi.blogspot.com/ ब्लॉग में सम्मिलित की गयी है। चर्चा हेतु आप सादर आमंत्रित हैं। सधन्यवाद।
जवाब देंहटाएंरचना को मान देने हेतु हृदय से आभार रविंद्र जी !
हटाएंमार्मिक लेखन
जवाब देंहटाएंचोका में शीर्षक 🤔
आभार दी ! आपके सुझाव महत्वपूर्ण हैं मेरे लिए.. ब्लॉग पर अलग अलग समय में हाइकु, तांका.चोका और सेदोका पोस्ट करते समय शीर्षक डालती हूँ ..मुझे शीर्षक विहीन रचना अधूरी सी लगती है ।
जवाब देंहटाएंत्रुटि सुधार कर लिया है दी 🙏 आभार मार्ग निर्देशन के लिए । सादर...
हटाएंबहुत शानदार मीना जी ।चोका विधा की रचना संवेदना से भरपूर प्राकृतिक विषमता का सुंदर चित्रण।
जवाब देंहटाएंआपकी स्नेहिल और ऊर्जात्मक प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन
हटाएंकरती है कुसुम जी ! हृदय से आभार.. सस्नेह !
प्रिय मीना जी , एक और सुंदर भावपूर्ण सृजन धरती माँ की आकुलता के नाम | सस्नेह शुभकामनायें आपके लिए |
जवाब देंहटाएंआपकी स्नेहिल और अपनत्व भरी हौसला अफजाई सृजन को सार्थकता देती है प्रिय रेणु जी ! आपका स्नेह व शुभकामनाएं मेरे लिए अमूल्य हैं ।
हटाएंबेहद हृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार अनुराधा जी !
हटाएंमानना पड़ेगा आपकी लेखनी को...शब्द आपके किन्तु बातें सबके मन की
जवाब देंहटाएंलेखन सफल और सार्थक हुआ.. रचना के भावों की सराहना के लिए हृदय से आभार संजय जी !
हटाएंवाह ... गज़ब का प्रवाह ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार नासवा जी ।
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