मन ऊब गया है अपने आप से
आज कल खुद से कुट्टी चल रही है
वरना ऊब के लिए फुर्सत कहाँ….
जिन्दगी से तो अपनी गाढ़ी छनती है
अहसासों की जमीन को भी
होती है रिश्तों में उर्वरता की जरुरत
माटी भी मांगती है चन्द बारिश की बूँदें...
सोंधी सी खुश्बू बिखेरने की खातिर
फोन उठाते ही उसने कहा --
क्या लाऊँ तुम्हारे खातिर ?
नींद ले आना ढेर सारी…,
तुम्हारे साथ ही चली गई थी
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आत्म केन्द्रित होत मन कहीं उलझा है बस कुछ थाह नहीं इधर उधर की ..
जवाब देंहटाएंउदासी का साफ भान देती सुंदर अभिव्यक्ति।
बहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
हटाएंमन ऊब गया है अपने आप से
जवाब देंहटाएंकसमकश के बीचखूबसूरती से लिखी "क्षणिकाएँँ" अंतिम पन्तियाँ बहुत अच्छी लगी...
नींद ले आना ढेर सारी…,
तुम्हारे साथ ही चली गई थी
बहुत बहुत आभार संजय जी ।
हटाएंखुद को खुद से मिलना भी अच्छा होता है कभी कभी ...
जवाब देंहटाएंएक गहरी नींद तरो ताज़ा कर देती है ... अच्छी रचना है ...
आपके उर्जावान वचनों के लिए बहुत बहुत आभार ।
हटाएंअहसासों की जमीन को भी
जवाब देंहटाएंहोती है रिश्तों में उर्वरता की जरुरत
माटी भी मांगती है चन्द बारिश की बूँदें...
सोंधी सी खुश्बू बिखेरने की खातिर
हम्म्म ,,बहुत बहुत ज़रूरत होती है। ..जमीन को। ...दिन प्रतिदिन बस उसकी शक्ति क्षीण होती जाती हे हर रिश्ते रूपी पौधे को खुद में से उर्वरता दे दे के। ...मगर अफ़सोस। ..जिससे इसकी उम्मीद होती है वहीँ से निराशा मिलती हे...क्यों ऐसा होता हे..ये नहीं मालुम... क्या पता कुदरत का नियम हो कोई। .... shaayd कभी कभी कुदरत भी चाहती इक उपजाउ हरित maayi को खुश्क पठार में बदल dena
seedhaaaa dil pr asar kiyaa
bdhaayi
आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया और सराहना के लिए असीम आभार जोया जी ।
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