कमी हमारी
या हमारे नामों की
या हमारे नामों की
पता नही..मगर
हमारे ग्रह-नक्षत्रों का
आकर्षण
जब टूटता है तो
विकर्षण भी
शेष नहीं बचता
उत्तरी ध्रुव का
छोर सी मैं
न जाने
न जाने
कितने कारवां...
तय कर आई
भटके मुसाफिर सी
भटके मुसाफिर सी
खोजती ...
दक्षिण सा सिरा
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बहुत सुंदर सृजन सखी
जवाब देंहटाएंस्नेहिल आभार कामिनी जी ।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18 -05-2019) को "पिता की छाया" (चर्चा अंक- 3339) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अनीता सैनी
"चर्चा मंच" पर मेरी रचना को सम्मिलित करने के निमंत्रण के लिए हृदयतल से आभार अनीता जी । सस्नेह..,
हटाएंबहुत सुंदर रचना, मीना दी।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार ज्योति जी ।
हटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है । हृदय से आभार !
हटाएंबहुत सुंदर मीना जी आध्यात्म का एक छोर टूटता है पर भव भव भटकता है बिना सिद्ध हुवे जीव।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना।
हृदयतल से स्नेहिल आभार कुसुम जी । आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से रचना सज गई ।
हटाएंकितने कारवां...
जवाब देंहटाएंतय कर आई
भटके मुसाफिर सी
खोजती ...
दक्षिण सा सिरा
बहुत सुन्दर सन्देश और हौसला बढ़ाती हुवी... मंजिले मिलती रहेंगी राह बनाने के लिए निरतर और मन से कर्म करें तो मंजिल मिलेगी
उत्साहवर्धित करती अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार संजय जी ।
हटाएंबहुत सुन्दर.... जीवन ही यही खोज है .... बस हम चलते चले जाते हैं किसी चीज की तलाश में भटकते जाते हैं.....
जवाब देंहटाएंअनमोल प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार विकास जी ।
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