अक्सर कुछ अनसुलझे
प्रश्न मन के दरिया में
कभी रोष तो कभी
असन्तोष का व्यूह बन
भंवर से घुमड़ते हैं ।
उस वक्त लगता है …,
अब की बार बह निकलेंगे
अल्फाज़ों में बिखर
लावा या सुनामी से… ,
मगर ये जो पुल है ना जिसका
ईंट-गारा और पत्थर….,
नेह की बुनियाद है ।
अटल खड़ा है हिमालय सा
रोक लेता है हर आवेग को ।
गहरी खामोशी के बाद …,
मन के किसी कोने से
एक आवाज उभरती है….,
ये हिमालय यूं ही खड़ा रहे ।
अडिग…,अटल ….., निश्चल…,
इस कायनात से उस कायनात तक ।।
XXXXX
गहरे भावो से भरी रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन .........आदरणीया
हार्दिक आभार रविन्द्र जी ।
हटाएंबहुत सुन्दर रचना सखी
जवाब देंहटाएंसादर
सस्नेह बहुत बहुत आभार अनीता जी ।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार लोकेश नदीश जी ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 02 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"मुखरित मौन"में मेरी रचना को साझा करने के लिए सादर आभार यशोदा जी ।
हटाएंकई बार लगता है अनसुलझे सवालों का निकल जाना अच्छा ... पर अगर जवाब ना मिला तो ... ये फूट जाएँगे लावा बन के ... अच्छा है अंदर ही शांत हो जाएँ ...
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना ...
आपकी लेखनी को संबल प्रदान करती सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभार आभार नासवा जी ।
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भारत में "हरित क्रांति के पिता" - चिदम्बरम सुब्रह्मण्यम और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन के इस निमन्त्रण के लिए सादर आभार हर्षवर्धन जी ।
हटाएंसुन्दर कृति। कभी कभी प्रश्नों का बहार आना भी जरूरी होता है।
जवाब देंहटाएंआभार विकास जी ! ऐसा topicअब की बार ख्याल मेंं आया तो आपकी राय पर काम करने प्रयास होगा ।
जवाब देंहटाएंइन अनसुलझे प्रश्नों से उपजा रोश और असन्तोष बड़ा घातक होता है...लावा सा पिघलकर बाहर आया तो नेह का पुल ढह जाने का खतरा और अन्दर ही हिमालय सा अडिग देखने में अटल भी...परन्तु तन मन पर लम्बी बीमारी देता है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन....
आपके कथन से पूर्णतया सहमत । आपकी हौसला अफजाई
हटाएंसे अभिभूत हूँ सुधा जी ।
'हिम्मते मीना, मदद-ए-ख़ुदा.'
जवाब देंहटाएंतहेदिल से शुक्रिया आपकी हौसला अफजाई के लिए 🙏😊
हटाएंअंतर्मन की उमड़ घुमड़ का मनोवैज्ञानिक आख्यान. बहुत सुन्दर मीना जी, बधाई और आभार!!!
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली , तहेदिल से आभार विश्वमोहन जी ।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार अनुराधा जी,आपकी प्रतिक्रिया सदैव संबल देती है ।
हटाएंबहुत खूब.....बेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए तहेदिल से आभार रविंद्र जी ।
हटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंरचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभार राकेश जी !
हटाएंगहरी खामोशी के बाद...मन के किसी कोने से एक आवाज उभरती है...कई दिन कई शाम यूँ ही गुजर जाती है
जवाब देंहटाएंसन्नाटा भी खुद से बेखबर कहीं और चला जाता है....बहुत अच्छी रचना मीना जी.....प्रत्येक अक्षर गहराई लिए...!!
आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती संजय जी । तहेदिल से आभार !
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