अक्सर कुछ अनसुलझे
प्रश्न मन के दरिया में
कभी रोष तो कभी
असन्तोष का व्यूह बन
भंवर से घुमड़ते हैं ।
उस वक्त लगता है …,
अब की बार बह निकलेंगे
अल्फाज़ों में बिखर
लावा या सुनामी से… ,
मगर ये जो पुल है ना जिसका
ईंट-गारा और पत्थर….,
नेह की बुनियाद है ।
अटल खड़ा है हिमालय सा
रोक लेता है हर आवेग को ।
गहरी खामोशी के बाद …,
मन के किसी कोने से
एक आवाज उभरती है….,
ये हिमालय यूं ही खड़ा रहे ।
अडिग…,अटल ….., निश्चल…,
इस कायनात से उस कायनात तक ।।
XXXXX