कुछ तीखी लगती हैं
लोगों की बातें
लगने पर दुखती हैं
तुम से कुछ कहना है
हो चाहे कुछ भी
बस यूं ही रहना है
चल आगे बढ़ते हैं
करना क्या है अब
बस राह पकड़ते हैं
करनी अपने मन की
सुर सबका अपना
अपनी अपनी ढफली
कब कितना याद करूँ
उलझन है खुद की
मैं कौन राह गुजरूँ
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माहिया शैली में शानदार अंतरद्वंद्व रचा है आपने मीना जी सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंआपकी हौसला अफजाई से आभारी हूँ कुसुम जी ।
हटाएंबहुत ही सुन्दर सखी 👌
जवाब देंहटाएंसस्नेह हार्दिक आभार सखी ।
हटाएंजी बहुत ही सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंस्वागत आपका "मंथन" पर और तहेदिल से आभार हौसला अफजाई के लिए रविन्द्र जी ।
जवाब देंहटाएंमन के अंतर्द्वंद को लाजवाब माहिया के शब्दों में बाँधा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत उत्तम हैं सब ...
हौसला अफजाई के लिए तहेदिल से धन्यवाद नासवा जी ।
हटाएंवाकई, बड़ा मनोरम अंतर्द्वंद्व है।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार विश्व मोहन जी ।
हटाएंबहुत ही खूबसूरत अशआर
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार लोकेश नदीश जी ।
हटाएंबहुत ही सुन्दर कई भाव शब्दों से परे होते हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार संजय जी ।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-3-22) को "सैकत तीर शिकारा बांधूं"'(चर्चा अंक-4374)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
विशेष प्रस्तुति में मेरी रचनाओं का चयन हर्ष और गर्व का विषय है मेरे लिए.., बहुत बहुत आभार कामिनी जी!
जवाब देंहटाएंअहा! अभिनव।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार 🙏😊
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