कुछ गुजरे दिन दीखे
तुम से मिलने पर
विकसे कमल सरीखे
अपनी नेह कहानी
जानी पहचानी
लगती सरल सुहानी
ऐसे कुछ ना सोचो
कुछ पल रह कर चुप
सब सुन कर कुछ बोलो
रेशम के धागे हैं
जग के रिश्तों में
कितनी ही गांठें हैं
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वाह! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार विश्व मोहन जी ।
हटाएंबहुत खूब मीना जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर आभार !!!
हटाएंब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/11/2018 की बुलेटिन, " काहे का बाल दिवस ?? “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
"ब्लॉग बुलेटिन" में मेरी पोस्ट को सम्मिलित करने के लिए बहुत बहुत आभार शिवम् जी ।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी ।
हटाएंमीना जी, बहुत सुन्दर कविता !
जवाब देंहटाएंवैसे इस प्रेम के धागे में कवि रहीम के ज़माने से ही गाँठ पड़ती आ रही है.
आजकल तो वायरलेस प्रेम ही प्रचलित है. एक कनेक्शन टूटे तो दूसरा नंबर डायल किया जा सकता है.
वायरलेस प्रेम भी भावनात्मक जुड़ाव को कहाँ तोड़ पाता है । चाहे जितने बदलाव का बहाना करें हम ..., रहीम जी से पहले भी धागों में गाठें पड़ती थी अब भी पड़ती है किसी भी रिश्ते का बन्धन हो इस "ढाई आखर" का रुप नही बदलने वाला :-) । आपकी प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से धन्यवाद ।
हटाएंमीना जी, आपने तो मेरी टिप्पणी के जवाब में फिर कविता लिख दी.
हटाएंआपको मेरा उत्तर भी कविता लगा....,जितना आभार व्यक्त करूँ कम होगा ऐसी सराहना कभी कभी ही मिलती हैं 🙏🙏
हटाएंबहुत सुंदर हैं सभी हाइकू ...
जवाब देंहटाएंमहक लिए रिश्तों की ...
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से आभार नासवा जी ।
हटाएंबहुत खूबसूरत
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार लोकेश नदीश जी ।
हटाएंमीना जी सभी हाइकू ...जानदार शानदार... क्या कहने, बेहद उम्दा
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार संजय जी ।
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