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बुधवार, 14 नवंबर 2018

'समझाइश' (माहिया)

कुछ गुजरे दिन दीखे
तुम से मिलने पर
विकसे कमल सरीखे


अपनी नेह कहानी
जानी पहचानी
लगती सरल सुहानी


ऐसे कुछ ना सोचो
कुछ पल रह कर चुप
सब सुन कर कुछ बोलो


रेशम के धागे हैं
जग के रिश्तों में
कितनी ही गांठें हैं
_____________

20 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/11/2018 की बुलेटिन, " काहे का बाल दिवस ?? “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    उत्तर
    1. "ब्लॉग बुलेटिन" में मेरी पोस्ट को सम्मिलित करने के लिए बहुत बहुत आभार शिवम् जी ।

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  2. मीना जी, बहुत सुन्दर कविता !
    वैसे इस प्रेम के धागे में कवि रहीम के ज़माने से ही गाँठ पड़ती आ रही है.
    आजकल तो वायरलेस प्रेम ही प्रचलित है. एक कनेक्शन टूटे तो दूसरा नंबर डायल किया जा सकता है.

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    उत्तर
    1. वायरलेस प्रेम भी भावनात्मक जुड़ाव को कहाँ तोड़ पाता है । चाहे जितने बदलाव का बहाना करें हम ..., रहीम जी से पहले भी धागों में गाठें पड़ती थी अब भी पड़ती है किसी भी रिश्ते का बन्धन हो इस "ढाई आखर" का रुप नही बदलने वाला :-) । आपकी प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से धन्यवाद ।

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    2. मीना जी, आपने तो मेरी टिप्पणी के जवाब में फिर कविता लिख दी.

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    3. आपको मेरा उत्तर भी कविता लगा....,जितना आभार व्यक्त करूँ कम होगा ऐसी सराहना कभी कभी ही मिलती हैं 🙏🙏

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  3. बहुत सुंदर हैं सभी हाइकू ...
    महक लिए रिश्तों की ...

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    उत्तर
    1. आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से आभार नासवा जी ।

      हटाएं
  4. मीना जी सभी हाइकू ...जानदार शानदार... क्या कहने, बेहद उम्दा

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"