जब से मिट्टी के घड़ों का चलन घट गया ।
तब से आदमी अपनी जड़ों से कट गया ।।
कद बड़े हो गए इन्सानियत घट गई ।
जड़ें जैसे अपनी जमीं से कट गई ।।
खाली दिखावा रह गया नेह कहीं बह गया ।
अपनेपन की जगह मन भेद जम के रह गया ।।
नीम पीपल घर में बोन्साई सज्जा हो गए ।
कच्चे आंगन वाले घर जाने कब के खो गए ।।
मन वहीं तुलसी के बिरवे सा बंध के रह गया ।
वक्त का पहिया बस धुरी पर फिरता रह गया ।।
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बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी ।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 28/10/2018 की बुलेटिन, " रुके रुके से कदम ... रुक के बार बार चले “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएं"ब्लॉग बुलेटिन" में मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार शिवम् मिश्रा जी ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 30 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"पांच लिंकों का आनन्द में" मेरी रचना को मान देने के लिए हार्दिक आभार यशोदा जी । आपकी हौसला अफजाई सदैव उत्साहवर्धित करती हैं ।
हटाएंवाहहह बहुत सुंदर...खरी-खरी अभिव्यक्ति मीना जी...लाज़वाब👌
जवाब देंहटाएंसराहना भरी प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार श्वेता जी ।
हटाएंसच कहा हैं हर बंध में ...
जवाब देंहटाएंबनाती जीवन इंसान को अपनी जड़ों से काट गया है ... अपनी मिट्टी नहि तो कहीं और जुड़ना आसान नहि होता ...
गहरी रचना ...
आपकी प्रतिक्रिया सदैव लेखन हेतु उत्साहवर्धित करती है , बहुत बहुत आभार नासवा जी ।
हटाएंसुन्दर सार्थक एवं सटीक.....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत बहुत आभार सुधा जी ।
हटाएंमन की सारी बातें लिख दीं...क्योंकि अक्सर यही होता आया है जब इंसान का कद बहुत बड़ा हो हो जाता है तब इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है
जवाब देंहटाएंसारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से धन्यवाद संजय जी ।
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