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रविवार, 28 अक्टूबर 2018

आज और कल

जब से मिट्टी के घड़ों का चलन घट गया ।
तब से आदमी अपनी जड़ों से कट  गया ।।

कद बड़े हो गए इन्सानियत घट गई ।
जड़ें जैसे अपनी जमीं से कट गई ।।

खाली दिखावा रह गया नेह कहीं बह गया ।
अपनेपन की जगह मन भेद जम के रह गया ।।

नीम पीपल घर में बोन्साई सज्जा हो गए ।
कच्चे आंगन वाले घर जाने कब के खो गए ।।

मन वहीं तुलसी के बिरवे सा बंध के रह गया ।
वक्त का पहिया बस धुरी पर फिरता रह गया ।।
               
                       XXXXX

14 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 28/10/2018 की बुलेटिन, " रुके रुके से कदम ... रुक के बार बार चले “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. "ब्लॉग बुलेटिन" में मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार शिवम् मिश्रा जी ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 30 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. "पांच लिंकों का आनन्द में" मेरी रचना को मान देने के लिए हार्दिक आभार यशोदा जी । आपकी हौसला अफजाई सदैव उत्साहवर्धित करती हैं ।

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  3. वाहहह बहुत सुंदर...खरी-खरी अभिव्यक्ति मीना जी...लाज़वाब👌

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    1. सराहना भरी प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार श्वेता जी ।

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  4. सच कहा हैं हर बंध में ...
    बनाती जीवन इंसान को अपनी जड़ों से काट गया है ... अपनी मिट्टी नहि तो कहीं और जुड़ना आसान नहि होता ...
    गहरी रचना ...

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    1. आपकी प्रतिक्रिया सदैव लेखन हेतु उत्साहवर्धित करती है , बहुत बहुत आभार नासवा जी ।

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  5. सुन्दर सार्थक एवं सटीक.....
    वाह!!!

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  6. मन की सारी बातें लिख दीं...क्योंकि अक्सर यही होता आया है जब इंसान का कद बहुत बड़ा हो हो जाता है तब इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है

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    1. सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से धन्यवाद संजय जी ।

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"