जब से मिट्टी के घड़ों का चलन घट गया ।
तब से आदमी अपनी जड़ों से कट गया ।।
कद बड़े हो गए इन्सानियत घट गई ।
जड़ें जैसे अपनी जमीं से कट गई ।।
खाली दिखावा रह गया नेह कहीं बह गया ।
अपनेपन की जगह मन भेद जम के रह गया ।।
नीम पीपल घर में बोन्साई सज्जा हो गए ।
कच्चे आंगन वाले घर जाने कब के खो गए ।।
मन वहीं तुलसी के बिरवे सा बंध के रह गया ।
वक्त का पहिया बस धुरी पर फिरता रह गया ।।
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