हरहराता ठाठें मारता
प्रकृति का वरदान है जल ।
जीवन देता प्यास बुझाता
नद-निर्झर में बहता है जल ।।
जो ये बरसे मेघ बन कर
खिले धरा दुल्हन बन कर ।
उस अम्बर का इस धरती पर
छलके ये अनुराग बन कर ।।
सीप म़ें मोती मोती की आब
जीवन का मधु राग है जल ।
गम से टूटे बांध जो दिल के
तो आँखों से बहता है जल ।।
तोड़े सीमा तो बने प्रलय
मर्यादा में अभिराम है जल ।
बिन इसके तो शून्य जगत है
सृष्टि का आधार है जल ।।
XXXXX
जल की महिमा का बखान करती,सार्थक सन्देश देती उत्कृष्ट रचना।
जवाब देंहटाएंजल कठोर पत्थर को भी घिसकर चिकना बना देता है, अपना मार्ग बनाकर आगे बढ़ता रहता है।
लिखते रहिये।
प्रेरणात्मक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार रविन्द्र सिंह जी ।
जवाब देंहटाएंतोड़े सीमा तो बने प्रलय
जवाब देंहटाएंमर्यादा में अभिराम है जल ।
बिन इसके तो शून्य जगत है
सृष्टि का आधार है जल ।।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
हार्दिक आभार लोकेश नदीश जी ।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 11/09/2018 की बुलेटिन, स्वामी विवेकानंद के एतिहासिक संबोधन की १२५ वीं वर्षगांठ “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएं"ब्लॉग बुलेटिन" में मेरी रचना को शामिल कर मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी।
हटाएंतोड़े सीमा तो बने प्रलय
जवाब देंहटाएंमर्यादा में अभिराम है जल ।
बिन इसके तो शून्य जगत है
सृष्टि का आधार है जल वाह बहुत सुंदर रचना 👌
हृदयतल से आभार अनुराधा जी 🙏
हटाएंजल एवं बंधन की महत्वता सर्वोपरि है जो आपकी कृति में सुंदर अभिव्यक्त हुआ है इसी तरह काव्य रचना समुदाय में अपनी रचनाओं को हम सबके साथ सांझा करते रहिए ।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से आभार करते है दीदी हमारे समुदाय को अपना समय देने के लिए।
स्वागत आपका मेरे ब्लॉग "मंथन" पर . आपकी उत्साहवर्धक और विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से धन्यवाद . आपके मंच से रचनाएं साझा कर के सदैव हर्ष की अनुभूति होगी .
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जवाब देंहटाएंजो ये बरसे मेघ बन कर
खिले धरा दुल्हन बन कर ।
उस अम्बर का इस धरती पर
छलके ये अनुराग बन कर ।।
आभार 🙏🙏
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