कुछ नये के फेर में ,
अपना पुराना भूल गए ।
देख मन की खाली स्लेट ,
कुछ सोचते से रह गए ।।
ढलती सांझ का दर्शन ,
शिकवे-गिलों में डूब गया ।
दिन-रात की दहलीज पर मन ,
सोचों में उलझा रह गया ।।
दो और दो के जोड़ में ,
भावों का निर्झर सूख गया ।
तेरा था साथ रह गया ,
मेरा सब पीछे छूट गया ।।
XXXXX
दिन-रात की दहलीज पर मन ,
जवाब देंहटाएंसोचों में उलझा रह गया ।।
जाने इस कविता में ऐसा क्या है जो भीतर तक लकीर की तरह खिंच गया है ... कुछ नये के फेर में मेरा सब पीछे छूट गया नए और पुराने के फेर को गहराई को नाप कर चलती हैं आप।
संजय जी मन प्रसन्नता से अभिभूत हुआ आपकी इतनी सराहनीय प्रतिक्रिया पा कर । हौसला अफजाई के लिए तहेदिल से आभार ।
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना मीना जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना मीना जी
जवाब देंहटाएंआपका। स्वागत "मंथन" पर..., रचना सराहना के लिए हृदयतल से धन्यवाद सतीश सही जी ।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका ।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआभार अनुराधा जी ।
हटाएंनए के फेर में कितना कुछ पीछे छूट जाता है जिसे संजो लेना चाहिए थे ... उस असीम रिक्तता को कौन भर सकता है ... सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंइतनी सुन्दर व्याख्यायित प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपका ।
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