इतने गर्वीले कैसे हो चन्द्र देव ?
कितना इतराते हो पूर्णिमा के दिन ।
क्या उस वक्त याद नहीं रहते बाकी के पल छिन ?
पूरे पखवाड़े कलाओं के घटने बढ़ने के दिन ।
सुख-दुःख , हानि-लाभ तो सबके साथ चलते हैं ।
तुम्हारी देखा देखी में सीधे इन्सान भी इतरते हैं ।।
तुम तो देवता ठहरे , सब कुछ झेल लेते हो ।
हम इन्सानों को , दर्प की गर्त में ढकेल देते हो ।।
चंचलता छोड़ो देव तुम मान करो कुछ देवत्व का ।
फिर सीखेंगे हम भी निज अहं त्याग करने का ।।
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वा...व्व...मीना, तुमने तो अहंकार को स्पष्ट करने ले लिए चंद्रमा को भी लपेट लिया। बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंअति आभार ज्योति जी :-)
हटाएंबहुत सुंदर!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार विश्व मोहन जी ।
हटाएंये चाँद बेदर्दी है ...
जवाब देंहटाएंकहाँ रहता है इसमें देवत्व .... ये तो प्रेमी के दिल का आभास है ...
हाँ देवता होता तो गुरूर न होता ...
इस नज़र से भी चाँद को बाखूबी लिखा है आपने ...
बहुत बहुत धन्यवाद नासवा जी । आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती हैं ।
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