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शनिवार, 26 मई 2018

“कशमकश”

फुर्सत के लम्हे रोज़ रोज़ मिला नहीं करते ।
सूखे फूल गुलाब के फिर खिला नहीं करते ।।

छूटा जो  हाथ एक बार दुनिया की भीड़ में ।
ग़लती हो अपने आप से तो गिला नहीं करते ।।

आंधियों का दौर है , है गर्द ओढ़े आसमां ।
चातक को गागर नीर हम पिला नहीं सकते ।।

देने को साथ कारवां में लोग हैं बहुत ।
खोया है गर यकीं तो फिर दिला नहीं सकते ।।

सोचूं ऐ जिन्दगी तुम्हें मैं गले से लगा लूं ।
रस्मे वफ़ा-ए-इश्क से फिर हिला नहीं सकते ।।

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रविवार, 20 मई 2018

।।मुक्तक।।

( 1 )
सहमति  हो किसी बात के लिए भी ।
संभव नहीं ये किसी के लिए भी ।।
कई बार मौन भी ओढ़ना पड़ता है ।
सब के अमन-चैन के लिए भी ।।
                 
                ( 2 )

निहारना चांद को भला सा लगता है ।
सौंदर्य का रसपान भी अच्छा सा लगता है ।।
खूबसूरती की कमी तो सूरज में भी नहीं ।
बस नजरे चार करना ही टेढ़ी खीर सा लगता है ।।

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गुरुवार, 17 मई 2018

"गुफ्तगू" (ताँका)

    ( 1 )
समय चक्र
कुछ पल ठहरे
तो मैं चुन लूं
स्मृतियों के  वो अंश
छूटे है यहीं कहीं
       ( 2 )
वक्त के साथ
निश दिन चलते
थका है मन
प्रतिस्पर्धी होड़ से
रूक कर सुस्ता लूं
     ( 3 )
मेरे अपने
तेरा हाथ पकड़
चलना चाहूं
एक नई डगर
बन के सहचर
     (4 ) 
गर खो जाए
दुनिया की भीड़ में
दीप यकीं का
प्रज्जवलित रखें
मन के आँगन में

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रविवार, 13 मई 2018

"एक चिट्ठी"

गर्मी की छुट्टियों की दोपहर
और मेरे गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह में ।
मुझे तुम्हारी टोका-टाकी
अच्छी नही लगती थी ।।
मगर तुम भी यह
अच्छे से जानती थी कि मैं ।
तुम्हारे प्यार के बिना इस दुनिया‎ में
नितान्त अकेली और एकदम डरपोक थी ।
रात के अँधेरे में  तुम्हारे दुलार भरे
स्पर्श बिना नींद भी कहाँ आती थी ।
तुम्हारे बचपन की बातें माँ ! लोरी के साथ
जैसे सावन की ठण्डी बयार लाती थी ।।
तुम्हारा दुलार भरा हाथ
दृगों को नींद से बोझल कर देता था।
ममता भरा आँचल सोने सा संसार रच देता था ।।
इस दुनिया की तरह शायद तुम्हें
उस दुनिया में भी बहुत काम थे ।
तुम्हारे बिना रिश्ते  थे तो बहुत
मगर सिर्फ नाम ही नाम के थे ।।
तुम्हारे जाने के बाद मैनें
डरना छोड़ दिया था ।
शरारतों से दोस्ती छोड़
समझदारी का कम्बल ओढ़ लिया था ।।
अगली बार मेरे लिए फुर्सत से आना
माँ ! तुम से कुछ साझा करना बाकी है ।
तुम्हारी अविभाज्य बन  तुम्हारे साथ असीमित
प्यार और सम्मान का प्रतिदान बाकी है ।।

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मंगलवार, 8 मई 2018

"घर"

बहुत बरस बीते
बचपन वाला घर देखे ।
अक्सर वह सपने में  मुझ से
मिलने बतियाने आ ही जाता है ।।
उम्र तो पहले भी अधिक ही थी
अब तो और भी बूढ़ा हो गया है ।
वक्त के साथ दीवारों की सींवन
कई जगहों से उधड़ी सी दिखायी देती है ।।
कल सपने में देख कर लगा था
आजकल उदास रहने लगा है ।
नश्वरता और क्षण‎भंगुरता का दर्द
जर्जरता के साथ टपकने लगा है ।।
जी करता है दौड़ कर आऊँ
और  आ कर तुम्हारे गले लग जाऊँ ।
तुम्हारे आंगन की सौंधी खूश्बू
अपने आँचल में भर कर‌ ले आऊँ ।।
हसरतें हैं इतनी तुमसे मिलने की
तुम्हे अनुमान नही होगा ।
अपने बीच पसरे इस वनवास का
ना जाने किस दिन अवसान होगा ।


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मंगलवार, 1 मई 2018

"क्षणिकाएँ"

        
  ( 1 )

अच्छी लगी
तुम्हारी आवाज में
लरजती मुस्कुराहट ।
बहुत दिन बीते यह
दुनियादारी की भीड़ में
खो सी गयी थी ।।

    ( 2 )

जागती आँखों से देखे
ख़्वाब पूरा करने की जिद्द
अक्सर दिखायी देती है ।
तुम्हारी हथेलियों की
सख्ती और मेरे
माथे की लकीरों में ।।

       ( 3 )

ऐसी भी कोई‎
बात नही कि मन का
तुमसे कोई मोह नही ।
बस तुम्हारी  “मैं” को
संभालना जरा टेढ़ी
खीर जैसा लगता है ।।

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