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बुधवार, 25 अप्रैल 2018
शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018
"प्रश्न"
कुछ दिन से मन उदास
और अभिव्यक्ति खामोश है
समाज में असुरक्षा की सुनामी ने
सोचों का दायरा संकुचित और
जीवन पद्धति का प्रतिबिम्ब
धुंधला कर दिया है
कोमलकान्त पदावली के साथ
प्रकृति और जीवन दर्शन
में उलझा मन कुछ भी
कह पाने में असमर्थ है
क्या यही है मेरी संस्कृति
जो कन्या को देवी मान
नवरात्र में चरण पूजती है
और यत्र नार्यस्तु पूज्यते
रमन्ते तत्र देवता कह कर
नारी सम्मान का
आह्वान करती है
विश्व के सब से बड़े
लोकतन्त्र का यह
कैसा रूप हो गया है
नारी का रक्षक मानव
दानव सदृश्य हो गया है
XXXXX
रविवार, 15 अप्रैल 2018
“उपालम्भ"
अवसर मिला “तिब्बतियन मॉनेस्ट्री” जाने का । तिब्बतियन शैली में बने भित्तिचित्रों में भगवान बुद्ध के जीवन-चरित और उनकी भव्य प्रतिमा को देख मन अभिभूत हो उठा । स्कूल लाइब्रेरी में स्व.श्री मैथलीशरण गुप्त की ‘यशोधरा’ पढ़ने को मिली जिसको पढ़ते हुए ना जाने कितनी बार मन और आँखों के कोर गीले हुए । भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने नतमस्तक होते हुए यशोधरा की व्यथा का भान हो आया और उपालम्भ मन से फूट पड़ा ।
मैं तुम्हारी यशोधरा तो नही....,
मगर उसे कई बार जीया है
जब से मैनें ......,
मैथलीशरण गुप्त का
मैथलीशरण गुप्त का
“यशोधरा” काव्य पढ़ा है
करूणा के सागर तुम
सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बने
अनगिनत अनुयायियों के
पथ प्रदर्शक तुम
अष्टांगिक मार्ग और बौद्धधर्म के
जन्मदाता जो ठहरे
तुम्हारे बुद्धत्व के प्रभामण्डल के
समक्ष नतमस्तक तो मैं भी हूँ
मगर नम दृगों से तुम्हारा
ज्योतिर्मय रूप निहारते
मन के किसी कोने में
एक प्रश्न बार बार उभरता है
एक प्रश्न बार बार उभरता है
हे करूणा के सागर !
तुम्हारी करूणा का अमृत
जब समस्त जड़-चेतन पर बरसा
तो गृह त्याग के वक्त
राहुल और यशोधरा के लिए
तुम्हारे मन से नेह का सागर
क्यों नही छलका ?
क्यों नही छलका ?
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रविवार, 8 अप्रैल 2018
"आँख-मिचौली”
नहाया धोया …, गीला सा चाँद
उतर आया है , क्षितिज छोर पर
थोड़ी देर में खेलेगा हरसिंगार की
शाख पर आँख-मिचौली
झूलती डाल और फूल-पत्तियों से
आधी सी रात में…………,
जब आ जायेंगे, नील गगन में
अनगिनत तारे, तो मनचला
भाग जाएगा उनके बीच….,
और खेलेगा उनके साथ
बादलों में छुपकर लुका-छिपी
भोर के तारे संग……….,
थक हार कर, छिप जाएगा
किसी अनदेखे आँचल के छोर में
दिन भर सो कर…..,
करेगा ऊर्जा संचित
कल फिर आने के लिए
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मंगलवार, 3 अप्रैल 2018
"त्रिवेणी"
(1)
मीलों लम्बी बातें जब चलती हैं तो रुकती नही ,
रील में बन्धे धागे सी खुलती ही चली जाती हैं ।
बरसों साथ जीया वक्त लम्हों में कहाँ सिमटता है ।।
(2)
कुछ जान-पहचान वक्त के हाथों ,
वक्त के साथ , हाथों से फिसल जाती है ।
मुट्ठी में बन्द रेत टिकती कहाँ है ।।
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